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जिनवाणी भक्ति स्तुति
१. आत्म वन्दना आतम ही है देव निरंजन, आतम ही सदगरु भाई । आतम शास्त्र, धर्म आतम ही, तीर्थ आत्म ही सुखदाई ॥ आत्म मनन ही है रत्नत्रय, पूरित अवगाहन सुखधाम । ऐसे देव, शास्त्र सद्गुरुवर, धर्म तीर्थ को सतत् प्रणाम ||
२. सवैया मिथ्यातम नाशवे को ज्ञान के प्रकाशवे को, आपा पर भासवे को भानु सी बखानी है। छहों द्रव्य जानवे को बंध विधि हानवे को, स्व पर पिछानवे को परम प्रमानी है ॥ अनुभव बताएवे को जीव के जताएवे को, काहू न सतायवे को भव्य उर आनी है। जहाँ तहाँ तारवे को पार के उतारवे को, सुख विस्तारवे को यही जिनवाणी है |
३.शारदा स्तवन वीर हिमाचल से निकसी, गुरु गौतम के मुख कुण्ड ढरी है । मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ता तप दूर करी है ॥ ज्ञान पयोनिधि मांहि रली, बहु भंग तरंगनिसों उछरी है । ता शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुलिकर शीश धरी है ॥ या जगमंदिर में अनिवार, अज्ञान अंधेर छयो अति भारी । श्री जिनकी धुनि दीप शिखा सम, जो नहिं होत प्रकाशन हारी ॥ तो किस भांति पदारथ पाँत, कहाँ लहते रहते अविचारी । या विधि संत कहैं धनि है, धनि हैं, जिन बैन बड़े उपकारी ॥
४. जिनवाणी वंदना
(लेखक - ब्र. बसन्त) श्री जिनवाणी जिनवर वाणी, जग जीवों को सुखदानी । मोह विनाशक तत्व प्रकाशक, भविकजनों के मन आनी ।। पूर्ण ज्ञान के महा सिंधु से, रत्नत्रय के रत्न मिले । ज्ञान भानु का उदय हुआ है, भव्यों के हिय कमल खिले ॥ मोह मान अज्ञान तिमिर को, ज्ञान किरण से दूर किया । सुनय जगाती कुनय भगाती, स्याद्वाद का मार्ग दिया ।। वस्तु स्वरूप यथार्थ बताया, बतलाया निज आतमराम | धन्य धन्य जिनवाणी माता, शत् शत् वंदन सतत् प्रणाम् ॥