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धन्य है धन्य है जिन धर्म अर्थात् वीतराग धर्म,जो सब धर्मो में सारभूत है जिसको इस पंचम काल में श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने दर्शाया है॥७॥ श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज धन्य हैं, धन्य हैं। हे गुरू देव ! तारण आपका नाम है अर्थात् स्वयं तिरना और जग के जीवों को तारना आपकी विशेषता है। जो भी मनुष्य आपका स्मरण करते हैं, उनके सभी काम सिद्ध होते हैं।८॥ यदि कदाचित् श्री गुरू तारण तरण स्वामी जी महाराज का इस पंचम काल में अवतरण नहीं होता तो इस मिथ्या संसार सागर से हम पार कैसे पाते? श्री जिन तारण स्वामी ने हमें समस्त रूढ़ियों और आडम्बरों से मुक्त कर भव सागर से पार होने का सम्यक् मार्गप्रशस्त किया है॥९॥
अब श्रीशास्त्र जी...... का अर्थश्री शास्त्र जी का नाम क्या दर्शाते हैं? यहां हाथ जोड़कर अस्थाप किये हुए ग्रंथों का सस्वर भक्ति पूर्वक नामोल्लेख करना चाहिये। जैसे - 'श्री भय षिपनिक ममल पाहुड नाम ग्रंथ जी, इसी प्रकार जिन-जिन ग्रंथों का अस्थाप किया हो उन - उन ग्रंथों का नाम स्मरण करें।
श्री कहिये...... का अर्थयहाँ श्री का अर्थ-ग्रंथ में समाहित वाणी से है। श्री अर्थात् वाणी कैसी है? सुशोभित करने वाली, मंगल करने वाली, उमंग उत्साह बढ़ाकर स्वरूपस्थ करने वाली, कल्याण करने वाली और सुख प्रदान करने वाली है। इन पाँच विशेषणों से युक्त वाणी के लिये आगे पढ़ते हैं -'भगवान महावीर स्वामी के मुखारविन्द कण्ठ कमल की वाणी इस पंचम काल में श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य महाराज ने प्रगटी कथी कही नाम दर्शाई ' इस प्रकार यहाँ श्री का अर्थ वाणी से
है।
आशीर्वाद का अर्थ
प्रथम आशीर्वाद: ॐकार मयी शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूति को उत्पन्न करो। ॐकार मयी स्वसमय शुद्धात्मा में रमण करो, जो ज्ञान और दर्शनमयी है। हितकारी सूर्य के समान दैदीप्यमान निर्विकल्प ज्ञान स्वभाव में रमण करो और प्रिय शब्द अर्थात् शुद्ध स्वभाव से संयुक्त रहो। अनंत ममल स्वभाव का सहकार कर उसी में रमण करो, उसी सहित रहो, देखो ध्रुव शाह पद अपना परमात्म स्वरूप प्रगट हो रहा है। इसी साधना से स्वयं का देव पद प्रगट हो जायेगा, स्वयं परमात्मा हो जाओगे। जय हो, जय हो, जीत लो, स्वानुभव से सम्पन्न होकर मुक्ति को प्राप्त करो।
द्वितीय आशीर्वाद: आत्मा और शरीर के अनादिकालीन जुग अर्थात् जोड़े को भेदविज्ञान पूर्वक अलग-अलग जानो, इसी में सुधार है, कल्याण है । अपने अनुपम रत्न स्वसमय शुद्धात्मा को निमिष अर्थात् पलक झपकने प्रमाण समय के लिये जीतो, प्राप्त करो। घटयं अर्थात् घड़ी भर (२४ मिनिट),तुंज-तुम स्वभाव में रहो, अभ्यास में वृद्धि करो और मुहूर्त = ४८ मिनिट, पहर पहरं = ३-३ घंटे तक, द्वि-तिय पहरं = दो पहर ६ घंटा और तीन पहर = ९ घंटा, चत्रु पहरं = ४ पहर (१२ घंटा), दिप्त रयनी - दिन रात, वर्ष = वर्षभर (३६५ दिन) तुम स्वभाव को जीतो, स्वभाव की साधना करो। वर्ष षिपति = वर्ष भी क्षय हो जाते हैं (वर्ष भर), सु आयु काल = अपनी आयु का जितना समय है उतना पूरा समय, कलनो आत्मा के ध्यान में लगाओ और जिन स्वभाव में प्रकाशित होकर अर्थात् वीतराग स्वरूप में रमण करके मुक्ति में जयवंत होओ अर्थात् मुक्ति को प्राप्त करो।