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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. १८]
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विशेषार्थ- ज्ञान गुणों की माला अर्थात् निज शुद्धात्म स्वरूप अत्यन्त निर्मल परम शुद्ध है। हे आत्मन् ! तुम्हारे अनन्त गुण हैं, पर संक्षेप में ही गुंथन किये हैं अर्थात् कहे हैं, अपना सत्स्वरूप शुद्धात्म तत्व रत्नत्रय से अलंकृत अर्थात् परम सुख, परम शान्ति, परम आनन्द, से परिपूर्ण है। यही श्रेष्ठ परमात्म स्वरूप निज शुद्धात्मा ही प्रयोजनीय है. इसी की साधना करो, यह श्री जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है।
यहाँ इस प्रश्न का उत्तर दिया जा रहा है कि क्या आत्म धर्म की इतनी महिमा है कि बाह्य में कुछ नहीं करना पड़ता और यह कर्मादि संयोग अपने आप छूट जाते हैं?
सद्गुरू कहते हैं कि यह तो जिनेन्द्र परमात्मा ने कहा है कि निज शुद्धात्म तत्व परमात्म स्वरूप महा महिमावन्त है, अनन्त गुण निधान है, रत्नत्रय से अलंकृत अर्थात् परम सुख,परम शान्ति, परम आनन्द से परिपूर्ण है। यहाँ तो संक्षेप में वर्णन किया है, जिसकी दृष्टि की महिमा अपूर्व अवक्तव्य है। एक समय की शुद्ध दृष्टि से असंख्यात अनन्त कर्म क्षय होते हैं, एक मुहूर्त अपने स्वभाव में रहे तो अनन्तानन्त बलशाली घातिया कर्म क्षय हो जाते हैं। अनन्त चतुष्टय केवलज्ञान सर्वज्ञ स्वरूप प्रगट होता है जिसकी एक समय की पर्याय में इतनी शक्ति है कि तीन काल-तीन लोक के समस्त द्रव्य और उनकी पर्याय स्पष्ट झलकती हैं। लोकालोक को प्रकाशित करने वाला अपना शुद्धात्म स्वरूप ही है। इसका सत्श्रद्धान, ज्ञान और इसकी साधना ही एक मात्र मुक्ति का कारण है । बाह्य का जो भी शुभाशुभ आचरण, शुभाशुभ भाव वह सब पुण्य-पाप कर्म बंध का कारण है। एक मात्र अपने शुद्धात्म स्वरूप में रहना ही मुक्ति का कारण है।
यह सत्य धर्म अपने शुद्ध स्वभाव की बड़ी महिमा है, धर्म ही एक मात्र कर्म क्षय का कारण है। अन्तर शुद्ध चिदानन्द स्वरूप को जान कर उसे प्रगट किये बिना जन्म-मरण टलने वाला नहीं है।
ज्ञानी के आन्तरिक जीवन को समझने हेतु अन्तरंग पात्रता चाहिए। धर्मात्मा अपने पूर्व प्रारब्ध के योग से बाह्य संयोग में खड़े हों तो भी उनकी परिणति अन्दर में कुछ अन्य ही कार्य करती रहती है। संयोग दृष्टि से देखो तो
वह स्वभाव समझ नहीं सकता। धर्मी की दृष्टि संयोग ऊपर नहीं बल्कि अपने आत्मा के स्व पर प्रकाशक स्वभाव पर होती है। ऐसे दृष्टिवन्त धर्मात्मा का आंतरिक जीवन अन्तर दृष्टि से समझने में आता है, बाह्य संयोग से उसका माप नहीं निकलता।
धर्म भी ज्ञानी को होता है और ऊँचे पुण्य भी ज्ञानी को बंधते हैं, अज्ञानी को आत्मा के स्वभाव का भान नहीं है, इसलिये उसके धर्म भी नहीं है और ऊँचा पुण्य भी नहीं होता। तीर्थकर पद, चक्रवर्ती पद, बलदेव पद ये सभी पद सम्यग्दृष्टि जीवों को ही प्राप्त होते हैं तथा शाश्वत सिद्ध पद भी धर्मी सम्यग्दृष्टि को मिलता है।
धर्मी को शुभ परिणाम भी आफत रूप लगते हैं, उनसे भी छूटना ही चाहता है, ये भाव आते हैं, तब वह अपने स्वरूप स्थिरता का उद्यमी रहता है। आत्मा का पर वस्तु के साथ मिलन ही नहीं है। इसलिए आत्मा पर के सम्बन्ध बिना स्वयमेव अकेला स्वयं-स्वयं में परम सुखी है। सम्यग्दर्शन होने के बाद स्थिरता में विशेष वृद्धि होने पर उसे व्रतादि के परिणाम आते हैं परन्तु वह उससे धर्म नहीं मानता। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की निर्मल शुद्ध पर्याय जितने जितने अंश में प्रगट होती है, वह उसे ही धर्म मानता है।
धर्मात्मा को अपना रत्नत्रय रूप आत्मा ही परम प्रिय है.संसार सम्बन्धी अन्य कुछ भी प्रिय नहीं है। धर्मी को अपने रत्नत्रय स्वभाव रूप मोक्षमार्ग के प्रति अभेद बुद्धि पूर्वक परम वात्सल्य होता है।
जिनेन्द्र की वाणी से जिसे शुद्ध चिद्रूपरत्न प्राप्त हुआ है, वह मुमुक्षु चैतन्य प्राप्ति के परम उल्लास में कहता है कि मुझे सर्वोत्कृष्ट चैतन्य रत्न मिला है, अब मुझे चैतन्य सिवाय अन्य कोई कार्य नहीं. अन्य कोई वाच्य नहीं, अन्य कोई ध्येय नहीं, अन्य कुछ श्रवण योग्य नहीं, अन्य कुछ भी प्राप्त करने जैसा नहीं है। अन्य कुछ श्रेय नहीं, व अन्य कोई उपादेय नहीं है।
जिस धर्मात्मा ने निज शुद्धात्म द्रव्य को स्वीकार करके परिणति को स्व-अभिमुख किया वह प्रतिक्षण मुक्ति की ओर गतिशील है, वह मोक्षपुरी का प्रवासी हो गया है।
आत्मा ही आनन्द का धाम है उसमें अन्तर्मुख होने से सुख है।