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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. १७]
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गुरू के सान्निध्य में निर्मल सुखकारी धर्म को प्राप्त करके, ज्ञान द्वारा जिसने समस्त मोह की महिमा नष्ट कर दी है तथा राग द्वेष की परम्परा रूप से परिणत चित्त को छोड़कर शुद्धध्यान द्वारा एकाग्र शान्त किये हुये, मन से आनन्दात्मक तत्व में स्थित रहता हुआ पर ब्रह्म में शुद्धात्म तत्व में लीन होता है, इस प्रकार शुद्धोपयोग को प्राप्त करके आत्मा स्वयं धर्म होता हआ अर्थात स्वयं धर्म रूप से परिणमित होता हुआ, नित्य आनन्द के विस्तार से सरस, ऐसे ज्ञान तत्व में लीन होकर अत्यन्त अविचलपने के कारण दैदीप्यमान केवल ज्ञान ज्योति वाले और सहज रूप से विलसित रत्न दीपक की निष्कंप, प्रकाश वाली शोभा को प्राप्त होता है।
प्रश्न-शानी अपने शुद्धात्म तत्व की साधना करके मुक्ति को प्राप्त कर लेता है, फिर यह व्रत नियम, संयम, तप, त्याग, साधु पद आदि करता है या नहीं? इसके समाधान में सद्गुरू तारण स्वामी आगे गाथा कहते हैं
गाथा-१७ जे सुद्ध दिस्टी संमिक्त सुद्धं, माला गुनं कंठ हृिदय विरूलितं । तत्वार्थ सार्धं च करोति नित्वं, संसार मुक्तं सिव सौष्य वीज॑ ।।
शब्दार्थ- (जे) जो (सुद्ध दिस्टी) सम्यग्दृष्टि (संमिक्त सुद्ध) सम्यक्त्व से शुद्ध अर्थात्-क्षायिक सम्यक्त्वी (माला गुनं) ज्ञान गुणों की माला अर्थात् शुद्धात्म स्वरूप (कंठ) गला-गर्दन में अर्थात् स्मरण में (हृिदय) मन आदि अन्त: करण में अर्थात् ध्यान में (विरूलितं) झुलती हुई देखते हैं अर्थात् प्रत्यक्ष अनुभूति करते हैं (तत्वार्थ साध) प्रयोजन भूत तत्व (शुद्धात्म तत्व) की साधना (च) और (करोति) करते रहते हैं (नित्वं) हमेशा (संसार मुक्तं) संसार (भवभ्रमण जन्म-मरण) से मुक्त होकर (सिव सौष्य वीज) इसी पुरुषार्थ से अविनाशी शिव सुख-सिद्ध पद को पाते हैं।
विशेषार्थ-निज स्वभाव के अनुभव से जिनकी दृष्टि शुद्ध हुई है, जो सम्यक्त्व से शुद्ध हैं, वे ज्ञानी अपने हृदय कंठ में ज्ञान गुणों की माला झुलती हई देखते हैं अर्थात् उन्हें अपने शुद्धात्मा का स्मरण ध्यान रहता है और
समस्त पर से अपनी दृष्टि हटाकर अपने इष्ट शुद्धात्म तत्व की साधना में रत रहते हैं। इसी सत्पुरूषार्थ से ज्ञानी संसार से मुक्त होकर मुक्ति के ब्रह्मानन्दमयी अनन्त सुख को प्राप्त करते हैं।
फिर यह व्रत, नियम, संयम, तप, त्याग, साधु पद आदि करते हैं, या नहीं?
सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव यह कुछ करता नहीं है, स्वयमेव होते हैं। जैसे- खेत में बीज बोने के बाद उसमें स्वयं अंकर पत्ते फूल-फल लगते हैं, लगाना नहीं पड़ते, इसी प्रकार इस धर्म रूपी बीज का आरोपण होने पर यह व्रत नियम, संयम, तप, त्याग, साधु पद आदि स्वयं होते हैं और सिद्धि मुक्ति की प्राप्ति होती है।
स्व वशता से उत्पन्न आवश्यक कर्म स्वरूप यह साक्षात् धर्म नियम से सच्चिदानन्द मूर्ति आत्मा में (सत् चित आनन्द स्वरूप आत्मा में) अतिशय रूप से होता है। ऐसा यह आत्म स्थित धर्म-कर्म क्षय करने में कुशल ऐसा निर्वाण का एक ही मार्ग है।
"एक होय त्रिकाल मां परमार्थ नो पंथ"। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः।
सम्यग्दर्शन ही एक मात्र मोक्ष का सोपान है, बगैर सम्यग्दर्शन के बाह्य में कितने ही व्रत-तप-संयम साधु पद किये जायें- सब व्यर्थ है।
मुनिव्रतधार अनन्त बार, ग्रीवक उपजायो।
पै निज आतम ज्ञान बिना, सुखलेश न पायो । सम्यग्दर्शन सहित जो भी बाह्य आचरण होता है, वह कर्म क्षय का हेतु मुक्ति का कारण है। सम्यग्दर्शन रहित जो भी आचरण है, वह सब कर्म बंध
और संसार का कारण है। सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के उसकी पात्रतानुसार व्रत, नियम, साधु पद स्वयं होते हैं, न होवें ऐसा भी नहीं होता है। जो बीज बोया जाये उसका अंकुरण न हो, पत्ते, फल-फूल न लगें, तो या तो बीज बोया ही नहीं गया, या गलत उसमें चला गया, यह सिद्धान्त है। बगैर बीज (सम्यग्दर्शन) के लगाये गये पत्ते, फल-फूल तो कागज के.नाईलोन के देखने में सुन्दर हो सकते हैं, पर उनसे न कोई लाभ है, न उपयोग है।