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[मालारोहण जी
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गाथा क्रं.१५]
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नि:शंकितादि आठ गुण प्रगट होते हैं, इससे अपने ज्ञानी-अज्ञानीपने का निर्णय कर लें।
(१) जो सम्यग्दृष्टि आत्मा अपने ज्ञान श्रद्धान में नि:शंक हो, भय के निमित्त से स्वरूप से चलित न हो अथवा संदेह युक्त न हो, उसके नि:शंकित गुण होता है।
(२) जो कर्म फल की बांछा न करे तथा अन्य वस्तु के धर्मों की बांछा न करे उसके नि:कांक्षित गुण होता है।
(३) जो वस्तु के धर्मों (स्वभाव) के प्रति ग्लानि न करे, उसके निर्विचिकित्सा गुण होता है।
(४) जो स्वरूप में मूढ न हो, स्वरूप को यथार्थ जाने, उसके अमूढ दृष्टि गुण होता है।
(५)जो आत्मा को शुद्ध स्वरूप में स्थित करे, आत्मा की शक्ति बढ़ावे, और अन्य धर्मों को गौण करे, उसके उपगूहन गुण होता है।
(६) जो स्वरूप से च्युत होते हुये, आत्मा को स्वरूप में स्थापित करे. उसके स्थितिकरण गुण होता है।
(७) जो अपने स्वरूप के प्रति विशेष अनुराग रखता है, उसके वात्सल्य गुण होता है।
(८) जो आत्मा के ज्ञान गुण को प्रकाशित करे, प्रगट करे, उसके प्रभावना गुण होता है।
इस प्रकार नवीन बंध को रोकता हआ, ज्ञानी अपने आठ गुणों से युक्त होने के कारण निर्जरा प्रगट होने से पूर्व बद्ध कर्मों का नाश करता हुआ अपने निजानन्द में मस्त रहता है।
चाहे जैसे शुभाशुभ कर्म का उदय आवे, जिसके भय से तीन लोक के जीव कांप उठे पर ज्ञानी, अपने ज्ञानभाव से चलायमान नहीं होता। अहमिक्को रखलु सुबो, दसणणाण मझ्यो सदा रुवी। णवि अस्थि मज्झ किंचिवि, अण्णं परमाणु मेतंपि ॥३७, समयसार ।।
निश्चय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ , दर्शन ज्ञान मय हूँ , सदा अरूपी हूँ। किंचित् मात्र भी अन्य पर द्रव्य, परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है.यह निश्चय है।
प्रश्न- यह सब निर्णय होने के बाद फिर ज्ञानी करता क्या है? इसके समाधान में सद्गुरू तारण स्वामी आगे १५वीं गाथा कहते हैं
गाथा-१५ सुद्धं प्रकासं सुद्धात्म तत्वं, समस्त संकल्प विकल्प मुक्तं । रत्नत्रयं लंकृत विस्वरूपं, तत्वार्थ साध बहुभक्ति जुक्तं ॥
शब्दार्थ-(सुद्धं प्रकासं) शुद्ध प्रकाशमयी ज्ञानज्योति (सुद्धात्म तत्वं) शुद्धात्म तत्व (ब्रह्म स्वरूपी) है, (समस्त) सारे (संकल्प विकल्प) मन के चलने वाले भूत, भविष्य के भाव से (मुक्तं)मुक्त, रहित है (रत्नत्रयं) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र से (लंकृत) अलंकृत, परिपूर्ण है (विस्व रूपं) अपना सत्स्वरूप है (तत्वार्थ साध) प्रयोजन भूत की साधना (बहु) बहुत (भक्ति) श्रद्धा भक्ति पूर्वक (जुक्तं) लीन होकर अथवा युक्ति पूर्वक करता है।
विशेषार्थ-शुद्धात्म तत्व सदैव शुद्ध प्रकाशमयी अर्थात् ज्ञान स्वरूपी है। सिद्ध के समान शुद्ध चिद्विलासी निजआत्मा समस्त संकल्प - विकल्पों से रहित रत्नत्रय से सुशोभित विशेष महिमामयी स्वयं का ही स्वरूप है।
ज्ञानी साधक इष्ट प्रयोजनीय निज शुद्धात्म तत्व की बहुत भक्ति युक्त होकर साधना करता है।
ज्ञानी क्या करता है? ज्ञानी अन्तरंग में चैतन्य मात्र परम वस्तु को देखता है और शुद्ध नय के आलम्बन द्वारा उसमें एकाग्र होता जाता है, उस पुरुष को तत्काल सर्व रागादिक आश्रव भावों का सर्वथा अभाव होकर सर्व अतीत अनागत और वर्तमान पदार्थों को जानने वाला निश्चल अतुल केवलज्ञान प्रगट होता है।
सतत् रूप से अखंड ज्ञान की सद्भावना वाला आत्मा अर्थात् मैं अखंड ज्ञान हूँ ऐसी सच्ची भावना जिसे निरन्तर वर्तती है वह आत्मा संसार के घोर विकल्प को नहीं पाता किन्तु निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करता हुआ पर परिणति से दूर अनुपम, अनघ, चिन्मात्र (चैतन्य मात्र आत्मा को) प्राप्त होता है।