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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. १३]
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इस प्रतिमाधारी के दो भेद होते हैं - १. क्षुल्लक २. ऐलक
उद्दिष्ट त्याग करने से पांचों पाप तथा परतन्त्रता का सर्वथा अभाव हो जाता है। इस प्रतिमा से अणुव्रत, महाव्रत रूप हो जाते हैं, यहाँ प्रत्याख्याना वरण कषाय का जितना मन्द उदय होता जाता है, उतना बाहरी और अन्तरंग चारित्र बढ़ता जाता है। अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना और ध्यान की स्थिति, स्वरूपाचरण चारित्र बढ़ने लगता है। भावों में विशुद्धता होती जाती है, इससे मुनिव्रत धारण कर सिद्ध परम पद मोक्ष की प्राप्ति होती है।
बहुधा देखा जाता है कि कितने भाई बहिन अन्तरंग में आत्म कल्याण की इच्छा रखते हुये भी बिना तत्वज्ञान प्राप्त किये, सम्यग्दर्शन से रहित दूसरों की देखा देखी श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं में कहीई प्रतिज्ञाओं में से कोई दो चार प्रतिज्ञायें अपनी इच्छानुसार नीची ऊँची यद्वा-तद्वा धारण कर त्यागी बन बैठते हैं और मनमानी स्वच्छन्द प्रवृत्ति करते हैं, इससे स्व पर कल्याण की बात तो दूर, उल्टी धर्म की बड़ी भारी हंसी और हानि होती है। ऐसे लोग "आप तुबन्ते पाडेले जिजमान" की कहावत के अनुसार स्वत: धर्म विलय प्रवृत्ति कर अपना अकल्याण करते हैं और दूसरों को भी ऐसा उपदेश दे उनका अकल्याण करते हैं, अतएव आत्म कल्याणार्थी भव्यों को उचित है कि पहले धर्म का वास्तविक स्वरूप समझें, मुक्ति के मार्ग को जानें, तत्वों का सही शान करें, अपने आत्मा के स्वभाव-विभाव को जानें,सम्यग्दर्शन सहित विभाव तजने और स्वभाव की प्राप्ति रूप अपने गुणों को प्रगट करने के लिए श्रावक तथा मुनिव्रत की साधक बाह्य और अन्तरंग क्रियायें व उनके फल को जानें, पीछे यथा शक्ति चारित्र अंगीकार करें।
यहाँ आचार्य श्री तारण स्वामी इसीलिये तत्वानि पेषं, कह रहे हैं कि तत्वों को भली भांति जानकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सहित अपने देवत्व पद के गुणों को प्रगट करने का प्रयास करना चहिए। यदि ध्रुव स्वभाव, सिद्ध स्वरूप का आश्रय न हो तो साधना का बल किसके आश्रय से प्रगट करेगा। ज्ञायक की ध्रुव धाम में दृष्टि जमने पर उसमें एकाग्रता रूप प्रयत्न करते करते निर्मलता प्रगट होती है।
पूर्ण गुणों से अभेद ऐसे पूर्ण आत्म द्रव्य पर दृष्टि करने पर उसी के आलम्बन से ज्ञानी को प्रगट होने वाली औपशमिक, क्षायोपशमिक भाव रूप पर्यायों का, व्यक्त होने वाली विभूतियों (गुणों) का वेदन होता है परन्तु उनका आलम्बन नहीं होता, उन पर जोर नहीं होता, उनका महत्व नहीं होता। जोर तो सदा अखंड शुद्ध द्रव्य पर ही होता है, क्षायिक भाव का भी आश्रय या आलम्बन नहीं लिया जाता, क्योंकि वह तो पर्याय है, विशेष भाव है। ध्रुव शुद्ध स्वभाव के आलम्बन से ही निर्मल गुण प्रगट होते हैं।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन सहित, ग्यारह प्रतिमा, पंचाणुव्रतों का पालन करने से पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक होता है, जो शुद्धात्म स्वरूप की साधना में रत रहता है, पर अभी भी वीतरागी न होने से आत्मस्थ की स्थिति नहीं बनती, सुख-शांति समता भाव तो हो जाता है, पर अतीन्द्रिय आनन्द आत्म स्वरूप में स्थित रहने के लिए मुनिव्रत साधु पद आवश्यक है, तभी पूर्ण वीतरागी होकर आत्म ध्यान की साधना से सिद्ध पद पाता है।
प्रश्न- साधु पद के लिए क्या करना पड़ता है? इसके समाधान में सद्गुरू आगे तेरहवीं गाथा कहते हैं
गाथा-१३ मूलं गुनं पालंति जे विसुद्धं, सुद्धं मयं निर्मल धारयेत्वं । न्यानं मयं सुद्ध धरंति चित्तं, ते सुद्ध दिस्टी सुद्धात्म तत्वं ।। __ शब्दार्थ- (मूलं गुन) मूल गुणों को (पालंति) पालन करते हैं (जे) जो (विसुद्धं) विशुद्ध भावों से (सुद्धं मयं) शुद्ध निजानन्द मयी (निर्मल) सब कर्ममलों से रहित (धारयेत्वं) धारण करते हैं (न्यानं मयं) ज्ञानमयी (सुद्ध)शुद्ध (धरंति) धरते हैं (चित्तं )चित्त में (ते) वह (सुद्ध दिस्टी) शुद्ध दृष्टि (सुद्धात्म तत्वं) शुद्धात्म तत्व को पाते हैं।
विशेषार्थ-जो भव्य जीव विशुद्ध भावों से मूल गुणों का पालन करते हैं, अपने शुद्ध निजानन्द मयी, ममल स्वभाव की साधना करते हैं, मैं ज्ञान मयी शुद्ध चैतन्य मात्र हूँ, ऐसा अपने चित्त में धरते हैं, वे शुद्ध दृष्टि शुद्धात्म तत्व सिद्ध पद को पाते हैं।