________________
१४९ ]
[मालारोहण जी
सो सब पर हैं, इन्हें ग्रहण करना, वा इसमें ममत्व भाव रखना सो परिग्रह है। इस परिग्रह का आवश्यकतानुसार परिमाण करना परिग्रह प्रमाण अणुव्रत है। परिग्रह प्रमाण अणुव्रत की पाँच भावना - पाँच इन्द्रियों के मनोज्ञ (इष्ट) विषय में राग तथा अमनोज्ञ (अनिष्ट) विषयों में द्वेष का त्याग, परिग्रह त्याग की पाँच भावनायें हैं।
परिग्रह प्रमाण अणुव्रत के पाँच अतिचार (१) प्रयोजन से अधिक वस्तु रखना (२) आवश्यकता की वस्तुओं का अति संग्रह करना (३) दूसरों का वैभव देखकर इच्छा करना, वैसा चाहना (४) अति लोभ करना (५) मर्यादा से रहित बोझ लादना ।
यह पाँच पापों के स्थूल त्याग से बहुत सी प्रमाद कषाय जनित आकुलता व्याकुलतायें घट जाती हैं, पाप बन्ध नहीं होता, शुभ कार्यों में विशेष प्रवृत्ति होती है, जिससे आगामी स्वर्गादि सुखों की और परम्परा से शीघ्र ही मोक्ष के सुख की प्राप्ति होती है ।
सप्तशीलों में तीन गुणव्रत तो अणुव्रत को दृढ़ करते हैं, उनकी रक्षा करते हैं और चार शिक्षाव्रत, मुनिव्रत की शिक्षा देते हैं। उनसे सम्बन्ध कराते हैं।
तीन गुणव्रत - (१) दिव्रत पापों की निवृत्ति हेतु दशों दिशाओं में आने जाने की सीमा बांध लेना दिव्रत है।
(२) देशव्रत प्रमाण की हुई सीमा में प्रतिदिन आवश्यकतानुसार गमनागमन की प्रतिज्ञा करना देशव्रत है।
(३) अनर्थ दण्ड व्रत - जिनसे धर्म की हानि होती हो, जो धर्म विरूद्ध, लोक विरूद्ध, जाति विरूद्ध क्रियायें, ऐसे कार्यों का त्याग करना, अनर्थ दंड त्याग व्रत है।
इसके पाँच भेद हैं- (१) पापोपदेश (२) हिंसादान (३) अपध्यान (४) विकथा कहना, सुनना और (५) प्रमाद चर्या ।
चार शिक्षाव्रत (१) सामायिक समता भाव में आकर आर्त, रौद्र भावों का त्याग कर संकल्प-विकल्प से रहित धर्म ध्यान करना, इसमें निराकुल, एकान्त स्थान में बैठ कर, मंत्र जप, स्तुति पाठ, आत्म चिन्तवन करना
गाथा क्रं. १२]
सामायिक है, प्रातः सायं और मध्यान्ह में प्रतिदिन करना चाहिए ।
(२) प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत- अष्टमी, चतुर्दशी को सम्पूर्ण पापारम्भ से रहित होकर, एकासन या उपवास करना और धर्म ध्यान में समय का सदुपयोग करना, प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत है। (सप्ताह में एक दिन छुट्टी मनाना, समस्त आरम्भ, परिग्रह से विरक्त रहना ।
[ १५०
(३) भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत- रागादि भावों को मंद करने के लिए भोग-उपभोग का परिमाण करना, भोगोपभोग परिमाण शिक्षाव्रत है।
जो वस्तु एक बार भोगने में आवे, उसे भोग कहते हैं, जैसे-भोजन, पान आदि। जो वस्तु बारम्बार भोगने में आवे, उसे उपभोग कहते हैं, जैसे - वस्त्र, आसन, वाहन आदि ।
(४) अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत जो कुछ भी अपने पास है, उसे आवश्यकतानुसार दूसरों को देना, मिल बाँट कर खाना, गरीब जरूरत मंद लोग एवं अतिथि, त्यागी, साधु आदि को आवश्यकतानुसार दान देना, अतिथि संविभाग व्रत है।
इस प्रकार अल्प आरम्भ, अल्प परिग्रह करते हुये, अपने भावों की शुद्धि करना वा पाप, परिग्रह, इन्द्रिय विषय, आरम्भ, परिग्रह का घटना ही प्रतिमाओं का बढ़ना है। इस प्रकार दूसरी व्रत प्रतिमा का संक्षेप में वर्णन किया, विशेष श्रावकाचार देखें।
(३) सामायिक प्रतिमा - राग द्वेष रहित होकर शुद्धात्म स्वरूप में उपयोग को स्थिर करना वह सामायिक प्रतिमा है। इस सामायिक की सिद्धि के लिये बारह भावना, पंच परमेष्ठी का स्वरूप, पदस्थ, पिंडस्थ ध्यान, आत्मा के स्वभाव विभाव का चिन्तवन, एवं आत्म स्वरूप में उपयोग स्थिर करने का अभ्यास करना, इसको तीनों समय संधि काल में जघन्य ४८ मिनिट करना आवश्यक है।
(४) प्रोषध प्रतिमा अष्टमी, चतुर्दशी को १६ प्रहर तक आहार, आरम्भ, विषय कषाय रहित होकर धर्म ध्यान में उत्कृष्ट प्रवृत्ति करना, प्रोषध प्रतिमा है।
(५) सचित्त त्याग प्रतिमा सचित्त भक्षण का त्याग, स्व दया,