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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.११]
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गाथा-११ देवं गुरं सास्त्र गुनानि नेत्वं, सिद्धं गुनं सोलहकारनेत्वं । धर्मं गुनं दर्सन न्यान चरनं, मालाय गुथतं गुन सस्वरूपं ॥
शब्दार्थ- (देव) देव के (गुरं) गुरू के (सास्त्र) शास्त्र के (गुनानि) गुणों को (नेत्वं) तुम धारण करो (सिद्ध) सिद्ध के (गुनं) गुणों को (सोलह कार नेत्वं) सोलह कारण भावनायें (धर्म) धर्म के (गुनं) गुणों को (दर्सन) दर्शन के (न्यान) ज्ञान के (चरनं) चारित्र के (मालाय) माला को (गुथतं) गूंथो (गुन) गुण (सस्वरूपं) अपने सत्स्वरूप के गुण हैं।
विशेषार्थ-पांच परमेष्ठी-देव के पांच गण, रत्नत्रय-गुरू के तीन गुण, चार अनुयोग-शास्त्र के चार गुण, सम्यक्त्व आदि सिद्ध के आठ गुण, दर्शन विशुद्धि आदि सोलह कारण भावनायें, उत्तम क्षमा आदि धर्म के दस
बाकी नहीं रहा। शुद्ध चैतन्य के अनुभव के लिए चारित्र मोह नष्ट होना योग्य है। ज्ञानी पुरूष के सन्मार्ग की नैष्ठिकता से चारित्र मोह का प्रलय होता है।
ज्ञानी, जगत को पुद्गल परमाणुओं का पिंड धूल का ढेर समझते हैं, यह उनके ज्ञान की महिमा है। ज्ञानी को जहां स्वरूप निधान-धर्म की महिमा प्रगट होती है, वहाँ पर्याय में बल आजाता है, पुरूषार्थ जगजाता है, निर्भयता, नि:शंकता आ जाती है।
लोग कहते हैं कि हमें सम्यग्दर्शन हुआ या नहीं, वह केवलज्ञानी जाने? परन्तु स्वयं आत्मा है वह क्यों न जाने? कहीं आत्मा बाहर नहीं चला गया, जड़ नहीं हो गया अर्थात् सम्यग्दर्शन हुआ है, उसे आत्मा स्वयं ही जानता है। जिस प्रकार कोई पदार्थ खाने पर उसका भान होता है उसी तरह सम्यक्त्व होने पर भ्रांति दूर होने पर उसका फल स्वयं जानता है, ज्ञान का फल ज्ञान देता ही है।
बाह्य क्रिया कांड में लोगों को रूचि हो गई है और अंतर की यह ज्ञायक वस्तु छूट गई है। वस्तु क्या है ? उसका स्वरूप क्या है ? जब तक यह निर्णय नहीं होगा, तब तक जीव का भला होने वाला नहीं है, मुक्ति का मार्ग बनने वाला नहीं है। धर्म का सत्स्वरूप समझा नहीं और प्रतिमा धारण कर लेते हैं, हो सका तो साधु बन जाते हैं। पर इससे होता क्या है? सम्यग्दर्शन के बिना प्रतिमा या साधुपना कैसा? और उससे लाभ क्या है ?
आत्मार्थी का लक्ष्य श्रवण, मनन, पठन, आदि सब मुख्यत: आत्मा के लिए हैं, सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए हैं। बगैर सम्यग्दर्शन के तो अनंत संसार परिभ्रमण ही होगा।
ज्ञान तो वह है, जिससे बाह्य वृत्तियां रूक जाती हैं, संसार पर से सचमुच प्रीति घट जाती है, सच्चे को सच्चा जानता है। जिससे आत्मा में गुण प्रगट हो वह ज्ञान है। सम्यग्ज्ञानी के अपने सत्स्वरूप के देवत्वपने के गुण प्रगट होने लगते हैं। इस प्रकार अपने को जानकर आगे बढ़े, यही सत्मार्ग है।
प्रश्न- अपने सत्स्वरूप के देवत्वपने के गुण कौन से हैं? इसके समाधान में सद्गुरू यह गाथा सूत्र कहते हैं
रत्नत्रय
परमेष्ठी
अनुयोग
१३
प्रकार का चारित्र
लक्षण धर्म
सम्यक्ज्ञान के अंग
१६ कारण भावना
सम्यक्दर्शन के अंग
सिद्ध के
गुण