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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.८ ]
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कोई काम हो और घर वालों को पता न चले. ऐसा नहीं हो सकता और फिर जैसा कार्य होता है उसी प्रकार उमंग-उत्साह पूर्वक उसमें लग जाते हैं। इसी प्रकार अपने घर में परमात्मा का जन्म हुआ और वह हृदय को पता न चले तो कैसे काम चलेगा? इसकी स्वीकारता, उमंग-उत्साह पर ही आगे का मार्ग बनता है। अनुभूति का पता मन को होता है। क्या हुआ यह बुद्धि जानती है। धारणा चित्त में होती है। उत्साह-उमंग अहं में होता है और जब यह सब मिलकर इस बात को स्वीकार कर लेते हैं, वही सम्यग्दर्शन की शुद्धि कहलाती है। उपशम, वेदक, क्षायिक सम्यक्त्व भी इन्हीं के द्वारा पता लगता है। इसमें आत्मानुभूति सहित इनकी स्वीकारता ही सम्यग्दर्शन की शुद्धि या पक्की बात है और तभी नि:शंकितादि गुण प्रगट होते हैं।
जिसको अनुभूति हुई हो वह जीव अनुभव के बल से कौन सी बात सत्य है और जो बात अनुभव से नहीं मिलती वह असत्य है. ऐसा फौरन जान लेता है, इसलिए हृदय से स्वीकार होना ही सम्यग्दर्शन की प्रामाणिकता. शद्धि है।
प्रश्न-जब आत्मा का रागादिभावों और शरीरादि से कोई सम्बन्ध नहीं है फिर यह पाप विषय-कषाय को छोड़ने का क्या प्रयोजन है?
समाधान- आत्मा का पर से कोई सम्बंध नहीं है और न आत्मा ग्रहण करता है न त्याग करता है, वह तो मात्र ज्ञायक स्वभावी है सिर्फ देखता जानता है,पर जब तक निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध संयोग दशा में है तब तक इस रूप परिणमन होता है। सम्यग्दर्शन होने पर कोई पूर्ण वीतरागी नहीं हो जाता,सम्यग्दर्शन होने के बाद भी भूमिकानुसार राग तो आता ही है। आत्मा का स्वरूप परिपूर्ण है, स्वभाव से सिद्ध के समान ध्रुव तत्व है, पर अभी वर्तमान पर्याय तो अशुद्ध है, ज्ञानी को तो पर्याय का विवेक वर्तता है। पर्याय में अपने ही कारण से अशुद्धता है ऐसा न मानकर यों माने की अकेला आत्मा ही शुद्ध है तो वह निश्चयाभासी है।
निमित्त नैमित्तिक सम्बंध को जो नहीं मानता वह मिथ्यादृष्टि है।
आत्मा में भाव बंधन ही न हो तो सम्यग्दष्टि ज्ञानानन्द स्वभाव में स्थित होकर विकार का नाश किसलिए करते हैं ? अत: पर्याय में बंधन है।
निमित्त नैमित्तिक सम्बंध तो प्रत्यक्ष देखे जाते हैं, यदि पर्याय में बंधन न हो तो मोक्षमार्गी उसके नाश का उद्यम क्यों करते हैं ?
सम्यक् दृष्टि निर्विकल्प अनुभव में निरन्तर ही रह सकते नहीं इसलिए उन्हें भी शास्त्राभ्यास, व्रत, नियम, संयम के भाव उठते हैं। ऐसे शुभ राग को निर्विकल्प अनुभव की अपेक्षा हेय कहा है, निर्विकल्प अनुभव में रहना तो सर्वोत्तम है परन्तु छनस्थ का उपयोग निचली दशा में आत्म स्वरूप में अधिक समय तक स्थिर नहीं रह पाता अत:ज्ञान की विशेष निर्मलता हेतुशास्त्राभ्यास में बुद्धि लगना योग्य है तथा चारित्र की शुद्धि निर्मलता हेतु व्रत-नियम-संयम-तप में लगना, पाप, विषयकषायों से हटना बचना श्रेयस्कर है। यदि कोई शुभाचरण रूप प्रवृत्ति का विरोध करे और अशुभाचरण रूप प्रवृत्ति करे तो वह अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही है।
आत्मा का स्वरूप परिपूर्ण है ऐसा अन्तर भान न हुआ हो और पुण्य छोडकर पाप में प्रर्वतन करे तथा शास्त्र की धर्म की आड़ लेकर कहे कि मुझे भी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी के समान बंध नहीं है तो निश्चयाभासी मिथ्यादृष्टि है। ज्ञानी को तो पर्याय का विवेक वर्तता है।
वैसे किसी ने शास्त्राभ्यास किया हो या न किया हो पर यदि उसे जीव के भाव का भासन है तो वह सम्यग्दृष्टि है । पुण्य-पाप, विषय-कषाय, दु:खदायक हैं, अधर्म है। रागरहित परिणाम शान्तिदायक है, मैं शुद्ध-ज्ञायक हूँ तथा शरीरादि कर्म अजीव हैं जिसे इस प्रकार भाव भासन हो, वही सम्यग्दृष्टि है।
आत्मा में जो पंच महाव्रत, संयम, तप आदि के परिणाम होते हैं सो शुभराग हैं, आश्रव हैं, उससे भी पुण्यबंध होता है जो अधर्म है। ज्ञायक हँ. शुद्ध, सिद्ध, ध्रुव हूँ, स्वभाव की श्रद्धा, ज्ञान पूर्वक, जितना वीतराग स्वरूप स्थिरता हुई, उतना संवर धर्म है। प्रतिज्ञा तो तत्व ज्ञान पूर्वक होना चाहिए. सम्यग्दर्शन होने के बाद व्रतादि के शुभ विकल्प आते हैं। आनन्द स्वभाव में लीन होऊँ, धर्मी की ऐसी भावना होती है, प्रतिज्ञा लिये बिना आसक्ति का