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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.७]
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रहित जानो। जो अनन्त सिद्ध परमात्मा हुए हैं वह सब अपने शुद्ध स्वरूप की गुणमाला को ग्रहण करके सिद्ध मुक्त हुए हैं। जो कोई भी भव्यात्मा अपने शुद्ध स्वरूप की अनुभूति कर शुद्ध सम्यग्दृष्टि होंगे, वे सब भी मुक्त सिद्ध परमात्मा होंगे।
इस तरह जो जीव मन, वचन, काय की क्रिया से हटकर और अपने उपयोग को पांचों इन्द्रियों के विषयों से तथा मन के विकल्पों से हटाकर अपने ही आत्मा में तन्मय करता है, आत्मस्थ हो जाता है इस दशा को आत्मा का दर्शन, सम्यग्दर्शन कहते हैं । इस स्थिति में रहने का पुरूषार्थ ज्ञान ध्यान पूर्वक वीतरागता की ओर बढना है। जिससे कर्मों का बंध छूटता है। कर्म क्षय होते हैं, आत्मा के गुणों का विकास होता है। धीरे-धीरे आत्मा के भाव शुद्ध होते-होते परम वीतराग हो जाता है। तब केवल ज्ञानी, अरहंत व सिद्ध कहलाता है।
प्रश्न-बहिरात्मा से अन्तरात्मा या परमात्मा होने का सरल सहज उपाय क्या है?
समाधान- सद्गुरू के सत्संग द्वारा या जिनवाणी के स्वाध्याय श्रवण मनन के द्वारा आत्मा का स्वरूप ठीक-ठीक जानना चाहिए। भेदज्ञान तत्व निर्णय का निरंतर अभ्यास करना चाहिए. वस्त स्वरूप समझने के लिए बुद्धिपूर्वक हमेशा प्रयास रत रहना चाहिए तथा ध्यान सामायिक का अभ्यास करना चाहिए। संसार के दुःखों से वैराग्यवान होकर जो मोक्ष की भावना से धर्म की ओर बढ़ता है। सत्य धर्म के स्वरूप को समझने का प्रयास करता है। सच्चे देव, गुरू,धर्म का श्रद्धान करता है। वह सम्यग्दर्शन होने पर बहिरात्मा से अंतरात्मा हो जाते हैं। अब सम्यग्दर्शन कब और किसे होता है ? तो यह जीव की पात्रता पकने होनहार काललब्धि आने पर अपने आप सहज में हो जाता है। सम्यग्दर्शन सहज-साध्य है, प्रयत्न साध्य नहीं है। संज्ञी पंचेन्द्रिय छहों पर्याप्ति वाले चारों गति में (नरक, तिर्यंच, देव, मनुष्य) कभी भी किसी को हो सकता है। सप्त प्रकृतियों (तीन मिथ्यात्व, चार अनंतानुबंधी कषाय) का क्षय, उपशम, क्षयोपशम होने पर काललब्धि आने पर सहज हो जाता है।
लब्धि पांच होती हैं- १. क्षयोपशम लब्धि २. विशुद्धि लब्धि ३. देशना
लब्धि ४. प्रायोग्य लब्धि ५. करण लब्धि। जिसके तीन भेद हैं- १. अध:करण २. अपूर्व करण ३. अनिवृत्तिकरण के अन्त समय अर्द्धपदगल परावर्तन काल शेष रहने पर काललब्धि आती है और जीव को शुद्धात्म स्वरूप की अनुभूतिसम्यग्दर्शन हो जाता है।
तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शन । तन्निसर्गादधिगमा । (तत्वार्थ सूत्र)
प्रयोजन भूत जीवादि सात तत्वों का श्रद्धान, सम्यग्दर्शन है यह सम्यग्दर्शन अपने आप या सद्गुरू के निमित्त से होता है।
___ आत्मानुभवन, सम्यग्दर्शन ही एक मात्र साधन है जो बहिरात्मा से अंत रात्मा व परमात्मा बनाता है। सिद्ध पद न तो किसी की पूजा भक्ति से मिल सकता है, न बाहरी जप, तप, चारित्र से मिल सकता है। वह तो केवल अपने ही आत्मा के यथार्थ अनुभव से ही प्राप्त होता है।
इस प्रकार भेदज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन होने पर बहिरात्मा से अन्तरात्मा हो जाता है तब अन्तरात्मा अपने स्वरूप की साधना करता है, वह जानता है कि आत्मा पूर्ण ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यक्त्व, चारित्रादि शुद्ध गुणों का सागर है। परम निराकुल है। परम वीतराग है। आठों द्रव्य कर्म, रागादि भाव कर्म तथा शरीरादि नो कर्म से भिन्न है। शुद्ध चैतन्य ज्योतिर्मय है। पर भावों का न तो कर्ता है न पर भावों का भोक्ता है। वह सदा स्वभाव के रमण में रहने वाली स्वानुभूति मात्र है। इस तरह अपनी आत्मा के शुद्ध स्वभाव की प्रतीति करके साधक इसी ज्ञान का मनन करता है।
यद्यपि अभी अव्रती ग्रहस्थ दशा में कर्म सहित अशुद्ध है तथापि भेद ज्ञान के द्वारा अपने को निरंजन अविकार शुद्ध ध्रुव तत्व सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा मानकर बार-बार विचार करता है। इस आत्म मनन के प्रताप से समयसमय अनन्तगुणी बढ़ती हुई विशुद्धता से आगे बढ़ता जाता है इससे प्रति समय असंख्यात कर्मों की निर्जरा क्षय होते जाते हैं।
चौथे अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में आत्मा का अनुभव प्रारंभ हो जाता है। यह दूज के चन्द्रमा के समान होता है। इसी आत्मानुभवन के सतत् अभ्यास से पांचवें गुणस्थान के योग्य आत्मानुभव निर्मल हो जाता है। इस तरह गुणस्थानों के प्रति जैसे-जैसे बढ़ता है, आत्मानुभव की शुद्धताव स्थिरता