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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. ६ ]
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जो जीव पाप कषायों में तो उत्साह पूर्वक अपना समय और धन-खर्च करते हैं और धर्म कार्यों में फुरसत नहीं है। जिन्हें मन्दिर जाने स्वाध्याय सत्संग करने का समय नहीं है। धर्म कार्यों में कृपणता करते हैं उन्हें धर्म के प्रति सच्चा प्रेम नहीं है। धर्म के प्रेमी ग्रहस्थ को संसार की अपेक्षा धर्म कार्यों में विशेष उत्साह वर्तता है।
ज्ञानी को भगवान आत्मा आनन्द स्वरूप और राग आकुलता स्वरूप ऐसे दोनों भिन्न प्रतीत होते हैं। त्रिकाली नित्यानन्द चैतन्य प्रभु ऊपर दृष्टि प्रसरने पर साथ में जो ज्ञान होता है, वह चैतन्य व राग को अत्यन्त भिन्न जानता है। जिसकी तत्व की दृष्टि हुई है उसी को सम्यग्ज्ञान होता है। जिसको दृष्टि प्राप्त नहीं है उसमें, चैतन्य व राग को भिन्न जानने की क्षमता नहीं होती। दृष्टि का विषय तो द्रव्य स्वभाव है, उसमें तो अशुद्धता की उत्पत्ति ही नहीं है। समकिती को किसी एक भी अपेक्षा से अनन्त संसार का कारण रूप मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषाय का बंध नहीं होता परन्तु इस पर से कोई यह मान लेवे कि उसे तनिक भी विभाव व बंध ही नहीं होता तो वह एकान्त है, मिथ्यात्व है। समकिती को अन्तर शद्ध स्वरूप की दृष्टि और स्वानुभव होने पर भी अभी आसक्ति शेष है जो उसे दुःख रूप लगती है। रूचि और दृष्टि की अपेक्षा से भगवान आत्मा तो अमृत स्वरूप आनन्द का सागर है, जिसका स्वाद समकिती को आता है। उसकी तुलना में शुभ या अशुभ दोनों राग दु:ख मय लगते हैं, वे विष और काले नाग तुल्य प्रतीत होते हैं।
ज्ञानी तत्व ज्ञान होने के पश्चात् स्वयं की पात्रता, पुरूषार्थ, शक्ति एवं बाहर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को देखकर शरीर संहनन, कर्मों के उदय, स्थिति, अनुभाग को जानकर ही प्रतिमा, श्रावक के व्रत या मुनिव्रत लेता है। देखा देखी कोई व्रत नियम नही लेता, यह सभी दशाएं सहज होती हैं।
धर्मात्मा को अपना रत्नत्रय स्वरूप आत्मा ही परम प्रिय है। संसार सम्बंध अन्य कुछ प्रिय नहीं है।
कोई जीव नग्न दिगम्बर मुनि हो गया हो, वस्त्र का एक धागा भी उसके पास न हो परन्तु पर वस्तु मुझे लाभकारी है ऐसा अभिप्राय हो तब तक उसके
अभिप्राय में से एक भी वस्तु छूटी नहीं है।
भाई ! यह धर्म का मार्ग बड़ा अपूर्व और सूक्ष्म है। इसे यथार्थ समझने पर यह दशा सहज बनती है।
भरत चक्रवर्ती, रामचन्द्र जी, पांडव वगैरह धर्मात्मा संसार में थे परन्तु उन्हें निरपेक्ष निज आत्म तत्व का भान था। धर्मात्मा यह भली भांति समझते हैं कि अन्य को सुखी-दु:खी करना, मारना - जिलाना वह आत्मा के अधिकार में नहीं है, तिस पर भी अस्थिरता शेष है। जिसके कारण लडाई में जुड़ने वगैरह के पाप भाव और अन्य को सुखी करने, जिलाने व भक्ति वगैरह के पुण्य भाव आते हैं। वे जानते हैं कि यह भाव पुरूषार्थ की शिथिलता वश आते हैं पर उन्हें ऐसी भावना का बल निरन्तर वर्तता है कि मैं स्वरूप लीनता का पुरुषार्थ करके अवशिष्ट राग को टाल कर मोक्ष पर्याय प्रगट करूँगा।
भरत चक्रवर्ती और बाहुबली दोनों भाइयों के बीच युद्ध हुआ, सामान्य व्यक्ति को ऐसा लगे कि दोनों भाई व दोनों सम्यग्ज्ञानी और तद्भव मोक्षगामी फिर यह क्या? परन्तु लड़ते वक्त भी उन्हें यह भान है कि मैं इन सबसे भिन्न हूँ। वे युद्ध के ज्ञाता हैं और जो क्रोध होता है, उस क्रोध के ज्ञाता हैं। उन्हें निज शुद्ध पवित्र आनन्द घन स्वभाव का भान वर्तता है, परन्तु अस्थिरता है जिससे लड़ाई में खड़े हैं। भरत चक्रवर्ती जीत न सके तो अन्त में उन्होंने बाहुबली जी के ऊपर चक्र चला दिया ऐसे में बाहुबली जी को वैराग्य आया कि धिक्कार है इस राज्य को....
अरे ! इस जीवन में राज्य के लिये यह क्या ? वस्तुत: ज्ञानी पुण्य से भी प्रसन्न नहीं होते और पुण्य के फल से भी प्रसन्न नहीं होते । बाहुबली जी विचारते हैं कि मैं चिदानन्द चैतन्य मय आत्मा पर से भिन्न हूँ। इसे यह योग्य नहीं यह शोभा नहीं देता, धिक्कार है इस राज्य को....
ऐसे वैराग्य स्फुरित होने से उन्होंने मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली, अपने को भी यह संसार असार लगे, आत्मा की महिमा आये तो मुक्ति का मार्ग सहज बनता है। मुनिराज को चलते फिरते,खाते पीते निज स्वरूप का भान वर्तता है। यह अतीन्द्रिय आनन्द अमृत रस का वेदन करते हैं। मुनिदशा कैसी होती है. इसका विचार तो करो,छठे सातवें गुणस्थान में झूलते ये मुनिराज