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[मालारोहण जी
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अनादि से सब जीव अज्ञानी मिथ्यादृष्टि ही हैं।
अब जब जिस जीव को काल लब्धि के वश सम्यग्सद्गुरू के उपदेश निमित्त से, मिथ्यात्वादि प्रकृतियों के उपशम, क्षय या क्षयोपशम से जब सम्यग्दर्शन हुआ, तभी स्व-पर भेदविज्ञान होने से आत्मा ने अपने स्वरूप को पहिचाना, वही अपने स्वरूप की साधना करके इनसे मुक्त होता है, अपने उपयोग को अपने स्वभाव में स्थिर करना ही सबसे बड़ा कड़ा पुरुषार्थ है जो कि अभ्यास साध्य है।
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जब जीव अपने ज्ञानानन्द स्वभाव का अनुभव करने में समर्थ हुआ, तबसे समस्त जगत का साक्षी हो गया, पर वस्तु मेरी है ऐसी दृष्टि छूटने से वह उसका साक्षी हुआ है। पर मेरा है और मैं उसका हूँ, ऐसी मान्यता छूट गई है वह सकल पर द्रव्यों का जानने वाला हो गया। उसकी दृष्टि में कोई परमात्मा हो तो भी वह उसका जानने वाला है और स्त्री-पुत्रादि हों उनका भी जानने वाला है । मेरा कोई नहीं है, कुछ भी नहीं है। ऐसा उसके ज्ञान श्रद्धान में आ गया है। वह तो ज्ञानानन्द स्वरूप ही बस मैं हूं, इस प्रकार निज वस्तु का स्वयं के द्वारा अनुभव करता है और निज स्वरूप को जानना ही इनसे छूटना है। जो जीव इस प्रकार भेदज्ञान तत्वनिर्णय करके वस्तु स्वरूप को नहीं जानता, वह इनके चक्कर में ही फंसा रहता है। अपनी अज्ञानता से, भाव कर्म से द्रव्य कर्म, द्रव्य कर्म से भाव कर्म का बंध होता रहता है। यही निमित्त नैमित्तिक सम्बंध अनादि संसार परम्परा का कारण है।
जो भव्य जीव अनेकान्त स्वरूप जिनवाणी के अभ्यास से उत्पन्न सम्यग्ज्ञान द्वारा तथा निश्चल आत्म संयम के द्वारा स्वात्मा में उपयोग स्थिर करके बार-बार अभ्यास द्वारा एकाग्र होता है, वही शुद्धोपयोग के द्वारा केवलज्ञान रूप अरिहन्त पद तथा सर्व कर्म शरीरादि से रहित सिद्ध परम पद पाता है।
बस यह अपना आत्म स्वभाव तथा पुद्गलादि कर्म स्वभाव और उससे होने वाले यह शरीरादि संयोग अन्तःकरण का परिज्ञान ही सबसे कठिन है। जब तक आत्मा अपने परम पुरुषार्थ को निज बल से प्रगट कर अनादि कालीन
गाथा क्रं. ५ ]
[ ६४ कर्म निमित्तजन्य विभावों और विकल्पों से अपने को नहीं निकालता तब तक इस संसार रूपी गहन जंगल में नाना दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है।
प्रश्न- क्या शुद्धनय को मानने से सांख्य मत न हो जायेगा तथा तत्व निर्णय (जिनवाणी का सार) को मानने से नियतिवाद न हो जायेगा इससे कायरता, प्रमाद, पुरुषार्थ हीनता कहलायेगी या नहीं?
समाधान भाई ! एकान्तवाद से किसी नय को ग्रहण करना ही अज्ञान मिथ्यात्व है। वस्तु या धर्म अनेकान्तमय है। जब तक संयोग है तब तक दोनों नयों को समझना, जानना, मानना जरूरी है। जब मुक्त हो जायेंगे तो स्वतः शुद्ध वस्तु ही रहेगी। जैसे- रेलगाड़ी दो पटरी पर ही चलती है पर जब स्टेशन आता है, उतरना होता है तब एक ही तरफ से उतरते हैं । इसी प्रकार शुद्ध नय का लक्ष्य श्रद्धान किये बिना सार भूत नहीं है और तत्वनिर्णय को स्वीकार किये बिना शुद्ध नय से काम नहीं चलता। जैन दर्शन के अनुसार कोई भी कार्य पांच समवाय से ही होता है
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(१) स्वभाव (२) निमित्त (३) पुरूषार्थ (४) काललब्धि (५) नियति ( होनहार ) ।
इसमें कथन एक पक्ष से ही किया जाता है, पर साथ में चार गौण रहते हैं। इस बात का जिसे ज्ञान नहीं है। वह सम्यग्दृष्टि ज्ञानी ही नहीं है। जब तक संयोग में संसार में जीव है, तब तक व्यवहार निश्चय के समन्वय पूर्वक ही चलना पड़ेगा तभी मोक्ष मार्ग पर चल सकता है; इसीलिए भेदज्ञान पूर्वक शुद्ध नय को स्वीकार करना तथा तत्वनिर्णय द्वारा अपने में शान्त निर्विकल्प रहना यही मुक्ति का मार्ग है। इससे न सांख्य होता, न नियतिवाद होता और न कायरता, प्रमाद, पुरुषार्थ हीनता कहलाती, यह तो शूरवीर, क्षत्रिय, योद्धा नरों का मार्ग है। इस बात को स्वीकार कर लेना एकत्व, अपनत्व, कर्तृत्व, छोड़ देना यह सामान्य बात नहीं है; यह बड़े पुरूषार्थ की बात महावीर बनने वालों की है। संसार में अज्ञानी जनों की अपेक्षा निकम्मा, कायरता आदि यह कहने में आता है पर वह इस बात को जानते ही नहीं हैं।
तत्व का निर्णय पुरुषार्थ से होता है, जिस समय जो होने वाला है, सो