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________________ संपादकीय गरतीय वसुन्धरा धन्य हो गई, जब सोलहवीं शताब्दी में आध्यात्मिक "क्रांतिकारी संत श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज का जन्म विक्रम, संवत् १५०५ की अगहन सुदी सप्तमी को ऐतिहासिक नगरी पुष्पावती में हुआ। पूज्य पिता श्रीगढ़ाशाह जी,मां वीर श्री देवी को ऐसा अपूर्व अनुभव हुआ जैसे कि उनके घर आध्यात्मिक ज्ञान सूर्य का उदय हुआ है । पुष्पावती का कण - कण, हरा-भरा सा, जन-मन प्रमुदित और चारों ओर का वातावरण हर्षित उल्लसित था। पूज्य तारण तरण जब पांच वर्ष के थे तभी उनके विलक्षण प्रतिभा संपन्न होने के लक्षण व्यक्त होने लगे थे। जब वे ग्यारह वर्ष के हुए तब उनके नानाजी की मृत्यु के निमित्त से उन्हें आत्म बोध, सम्यक दर्शन हुआ। वृद्धिगत होता हुआ वैराग्य, पूर्व संस्कार और उनका दृढ आत्म बल, संसार से मुक्त होने की भावना इतनी प्रबल थी कि युवावस्था की दहलीज पर पैर रखते ही २१ वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य व्रत और ३० वर्ष की युवावस्था में ब्रह्मचर्य प्रतिमा की दीक्षा धारण कर ली। आत्म साधना, मौन, एकांत प्रिय होने से निर्जन वन की गुफाओं में ध्यान, साधना करना उनकी जीवन चर्या थी। आत्मोन्मुखी दृष्टि से चिंतन, लेखन और वस्तु स्वरूप की दृढ़ता ने उन्हें वीतरागी बना दिया। ६० वर्ष की उम्र में उन्होंने निर्ग्रन्थ वीतरागी दिगम्बर साधु पदधारण किया, पश्चात् १५१ मण्डलों के प्रमुख आचार्य होने से मण्डलाचार्य कहलाये। उन्होंने पांच मतों में चौदह ग्रंथों की रचना की। विचार मत में श्री मालारोहण, पंडित पूजा, कमल बत्तीसी। आचारमत में श्री श्रावकाचार | सार मत में श्री ज्ञान समुच्चय सार, उपदेश शुद्ध सार, त्रिभंगीसार । ममल मत में श्री चौबीस ठाणा, ममलपाहुड़ और केवल मत में श्री खातिका विशेष, सिद्ध स्वभाव, सुन्न स्वभाव, छद्मस्थ वाणी और नाममाला। इन ग्रंथों की एक-एक गाथा में श्री गुरू महाराज ने ऐसा आध्यात्मिक अनुभव भर दिया है कि जो मनुष्य मात्र के लिये आत्म दर्शन कराने वाला, कल्याणकारी ज्ञान का अगाध सागर है। विचार मत के ग्रंथ मालारोहण में सम्यक् दर्शन, पंडित पूजा में सम्यज्ञान और कमलबत्तीसी में सम्यक्चारित्र का प्रतिपादन किया गया है। रत्नत्रय का त्रिवेणी संगम होने से यह तीनों ग्रंथ तारण त्रिवेणी के नाम से विख्यात हैं। इन तीनों ग्रंथों में समान रूप से ३२-३२ गाथायें हैं इस कारण इसे तीन बत्तीसी नाम भी प्राप्त है। यह तारण त्रयी जन-जन के लिये कल्याणकारी रत्नत्रय की ज्ञान गुण माला है। विचार मत के यह तीनों ग्रंथ हमें बुद्धि पूर्वक अपना निर्णय करने की प्रेरणा देते हैं। विचार मत का अर्थ ही है बुद्धि पूर्वक अपना निर्णय करना। अनादिकाल से जीव को शरीरादि संयोग और संयोगी भावों में एकत्व, अपनत्व और कर्तृत्व रूप अज्ञान के कारण कभी सत्य वस्तु स्वरूप, मोक्ष मार्ग को प्राप्त करने की रूचि ही नहीं हुई और कभी हुई भी तो वस्तु स्वरूप को पहिचाना नहीं। इस अज्ञानी जीव ने या तो शरीर की अशुभ क्रिया को शुभ क्रिया में बदलने को धर्म मान लिया या फिर अशुभ परिणामों को बदलकर ऊंचे से ऊंचे शुभ भाव करने को मोक्षमार्ग धर्म समझ लिया परन्तु जिस समय बाहर शरीराश्रित क्रिया और भीतर शुभ परिणाम हो रहे हैं, उसी समय कोई जानने वाला भी है जो उन दोनों को मात्र जानता जा रहा है, उसीजानने वाले को जाननाथा, उसी का निर्णय करना था, किन्तु अपना निर्णय न करके पर का, क्रिया का, संसार का निर्णय किया इसीलिये अनादि काल से संसार चक्र चल रहा है। कहा भी हैसबका निर्णय किया हमेशा, अपना नहीं किया है। बिन निर्णय के पगले तेरा, लगान कहीं जिया है॥ अपना निर्णय आज तू कर ले, तुझे कहा है जाना। चारों गति संसार में सलना, या मुक्ति को पाना ॥ (पूज्य श्री स्वामी ज्ञानानंद जी महाराज) बुद्धि पूर्वक अपना निर्णय करना ही विचार मत है। इसके अंतर्गत मुख्य रूप से चार सूत्र हैं- १. मैं कौन हूँ? २. मैं कहां से आया हूँ ? ३. मेरा स्वरूप क्या है? और ४. मुझे कहाँ जाना है? इसका चिंतन मनन कर अपना निर्णय करना ही धर्म है। इन प्रश्नों के उत्तर के बारे में अंतर में ही विचार करना है कि १. मैं आत्मा हूं शरीर नहीं। २.मैं चार गति चौरासी लाख योनियों से भ्रमण करता आया हूँ|३. मैं अरस अरूपी अस्पर्शी ज्ञाता दृष्टा ज्ञानानंद स्वभावी हूँ और ४. मुझे मोक्ष जाना है।
SR No.009718
Book TitleMalarohan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages133
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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