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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. ५ ]
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यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यह तीन शल्ये जिनवाणी का चिंतवन करने से कैसे मिट जाती हैं ?
समाधान-जिनवाणी का सार तत्व निर्णय क्या है इसको समझना ही जिनवाणी का चिन्तवन है। जब यह निर्णय हो गया कि जिस समय जिस जीव का जिस द्रव्य का जब जैसा जो कुछ होना है वह अपनी तत्समय की योग्यतानुसार हो रहा और होगा, उसे कोई टाल फेर बदल सकता नहीं है।
फिर शल्य विकल्प रहते ही नहीं हैं क्योंकि जब यह निर्णय है कि जब जो होना है वह निश्चित अटल है जैसा केवलज्ञानी के ज्ञान में झलका है वह कभी परिवर्तन हो सकता नहीं तो फिर "ऐसा न हो जाये" यह मिथ्या शल्य कहाँ रहेगी, "ऐसा नहीं ऐसा होता" यह माया शल्य किसे होगी, ''ऐसा करता ऐसा करूँगा" यह निदान शल्य भी कैसे होगी, जिसे भेदज्ञान तत्वनिर्णय नहीं हुआ उसे तो यह निरन्तर होती ही हैं। जिनवाणी का सही श्रद्धान ज्ञान करना उस पर विश्वास होना ही इन तीन शल्यों से मुक्त करता है।
प्रश्न - जब जो होना है वह सब निश्चित अटल है जैसा केवल ज्ञान में आया वैसा ही हो रहा है फिर पुरूषार्थ क्या है, हमें कुछ करने की जरूरत क्या है?
समाधान- भाई ! इस बात को स्वीकार कर लेना ही सबसे बड़ा पुरूषार्थ है। जीव तो मात्र ज्ञाता-दृष्टा है। न कुछ करता है न कर सकता है। यह ज्ञाता दृष्टा रहे, अपने ज्ञानानन्द स्वभाव में रहे यही सबसे बड़ा पुरूषार्थ है। जहाँ सब करना धरना छूट जाता है तो हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाता है, वही तो परमात्मा होता है। जिसे संसार के दु:खों से छूटना है। जिसे जन्म मरण के चक्र से मुक्त होना है, परमात्मा बनना है। उसे यह भेदज्ञान तत्वनिर्णय ही स्वीकार करना अनिवार्य है। इसी बात को अध्यात्म अमृत कलश १५ में कहा है
अपनी स्वाधीनता से जो पदार्थ जिस प्रकार के स्वभाव वाला है। उसका स्वभाव उसी प्रकार ही है। उसे दूसरा पर पदार्थ किसी अन्य स्वभाव वाला करने में किसी भी प्रकार समर्थ नहीं है। त्रिकाल ज्ञानस्वरूपी आत्मा कभी
अज्ञान नहीं बन सकता अतएव आचार्य कहते हैं कि हे ज्ञानी परूष ! तेरे ज्ञान भाव में रहते हुये भी विविध प्रकार के पूर्व में बांधे हुये शुभाशुभ कर्म का उदय आयेगा वह रूकेगा नहीं और तुझे दोनों प्रकार के कर्म भोगने होंगे तथापि तू अपने ज्ञान स्वभाव की भूमिका में क्रीड़ा करता रहा तो तुझे कर्म बंध न होगा।
वस्तुत: पर पदार्थ अपनी अपनी सत्ता में अक्षुण्ण हैं। उनका जीव भोग नहीं करता, न कर सकता, मैंने पदार्थ भोगा यह तो उपचरित कथन है। पदार्थ का ज्ञान ही पदार्थ का वेदन है और उसके प्रति राग ही उस पदार्थ को भोगना कहा जाता है। आचार्य कहते हैं हे आत्मन ! तू पर की ओर दृष्टि करके दीन हुआ ललचाता फिरता है। तूने कभी अपनी निज निधि का दर्शन नहीं किया तेरे भीतर तेरी ज्ञान कला ऐसी अपूर्व निधि है, जो तेरे सम्पूर्ण प्रयोजनों को साधने वाली है वही तेरे लिए चिन्ता मणि रत्न के समान शक्तिशाली वस्तु है। जिसकी शक्ति चिन्तवन में नहीं आती पर स्वयं अनन्त शक्ति उसमें है। उसका आश्रय कर, तेरे सर्व मनोरथ पूर्ण होंगे।
उस आत्मानुभव के उद्योत होने पर मिथ्यात्व का अन्धकार स्वयं लुप्त हो जाता है। ज्ञान की किरणें स्वयं उद्योत करने लगती हैं। वस्तु का यथार्थ बोध हो जाता है, पर से राग द्वेष दूर होकर समता रस का स्वयं उछाल होकर सम्यग्दृष्टि हो जाती है।
ऐसा ज्ञानी अपनी आत्मानुभव की लहरों में ही मगन रहता है, पराश्रय की दीनता दूर हो जाती है, मोक्ष पथ उसकी दृष्टि में सहज दीखता है। उसका मन संसार की समस्त वासनाओं से दूर हो जाता है और बंध मार्ग छूट जाता है।
प्रश्न- पर संसार में और सब जीव अपने पुरुषार्थ से जो करना चाहें कर सकते हैं या नहीं?
समाधान - भाई ! वस्तु स्वरूप को समझो, द्रव्य की स्वतंत्रता को स्वीकार करो तो यह प्रश्न नहीं उठेगा, अभी वस्तु स्वरूप द्रव्य की स्वतंत्रता को नहीं जाना है इसलिए यह भेद विकल्प उठते हैं। जीव तो मात्र ज्ञान स्वभावी ज्ञाता दृष्टा ही है, चाहे वह ज्ञानी हो चाहे वह अज्ञानी संसारी हो, द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है और वह अपने में स्वतंत्रतया परिणमन कर रहा है। जीव