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[मालारोहण जी
गाथा क्रं. ४ ]
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हथकड़ी-बेड़ियों से जकड़ा और कोई प्रमाण भी नहीं था, जिसको बता कर कह सके कि माँ मैं तेरा बेटा हूँ। वह भी टकटकी लगाये बड़े गौर से इनकी चर्चा सुनने लगा, उसकी आंखों से आँसू टपकने लगे। जब थानेदार ने उसकी शक्ल, सूरत, हुलिया के बारे में पूछा, तो माँ ने कहा- कौन मां अपने बेटे को न पहिचानेगी? सूरत-शक्ल से तो वह ऐसा ही था और उसके माथे पर भी ऐसा ही निशान था। थानेदार ने कहा- मां ऐसा तो बहुत लोगों के होता है, यह डाकू हैं, लड़ते, मरते, गिरते हैं तो इनको यह निशान होना तो स्वाभाविक है। तू तो कोई गुप्त चिन्ह बता - जिससे हम तेरे बेटे की खोज कर सकें, अभी जेल में ऐसे बहुत से नौजवान डाकू कैदी हैं, हम जरूर उसकी खोज करेंगे।
माँ ने कहा - कि भैया, हर माँ अपने बेटे के गुप्त से गुप्त चिन्ह जानती है, मेरे बेटे के सीने पर तीन तिल के निशान भी हैं।
जैसे ही माँ ने यह कहा, उधर, उस डाकू ने अपनी कमीज फाड़कर अपना सीना देखा और एकदम खड़ा होकर चिल्लाया-माँ ! माँ ! मैं तेरा बेटा हूँ।
माँ दौड पड़ी और हथकडी बेडी से जकडे हये, अपने बेटे को सीने से लगा लिया। थानेदार, सिपाही आश्चर्य चकित रह गये, गाँव वालों की भीड़ लग गई, माँ को बधाईयाँ देने लगे।
माँ ने कहा - बेटा ! तूने जो अपराध किये हों, उन्हें स्वीकार कर लेना, सत्य को नहीं छोड़ना, मेरी पूरी सम्पत्ति तेरे लिये है। मैं तुझे छुड़ाकर, मुक्त कराकर ही दम लूंगी। थानेदार ने भी साथ देने का वायदा किया।
जय बोलो, श्री गुरू महाराज की जय। यह एक सत्य घटना भी है और कथानक भी है. पर हमें इससे क्या समझना है कि अनादि से यह जीव भी इन कर्म लुटेरों के साथ फंसा है और इन्हीं जैसा हो रहा है। माँ जिनवाणी, सद्गुरू हमें अपने स्वरूप का बोध करा रहे हैं, हम भी संसारी हथकड़ी-बेड़ियों में जकड़े हुये हैं पर हम यह संसारी नर-नारकादि पर्याय वाले पाप, कषाय,मोह-राग, द्वेषादि परिणाम वाले डाकू
नहीं हैं। हम भी परमात्मा के बेटे चिदानन्द चैतन्य लक्षण वाले रत्नत्रय स्वरूपी भगवान आत्मा हैं। अगर हम भी जाग जाते हैं, अपने स्वरूप को देखकर हुंकार भरते हैं कि माँ ! मैं तेरा बेटा हूँ तो यह माँ जिनवाणी हमें भी संसार से मुक्त कराकर, परमात्म पद दिला देगी।
हमारे अन्दर से भी ऐसी ही छटपटाहट, तड़फ और हुंकार उठे, हमें भी यह संसारी बंधनों का दु:ख लगे, रोना आवे, छूटने की भावना हो और अपने स्वरूप का बोध जागे कि मैं चैतन्य लक्षण वाला, ब्रह्म स्वरूपी, निरंजन, भगवान आत्मा हूँ, यह शरीरादि मैं नहीं और यह मेरे नहीं हैं। तो सम्यग्दर्शन तो सहज साध्य है ही, मुक्ति और परमात्म पद भी सहज में होगा। भेद विज्ञान जगो जिनके घट, शीतल चित्त भयो जिमि चन्दन । केलि करें शिव मारग में, जग माहि जिनेश्वर के लघु नन्दन ॥ सत्य स्वरूप प्रगट्यो तिनको, मिटियो मिथ्यात्व अवदात निकन्दन । शान्त दशा तिनकी पहिचान, करें कर जोडि बनारसि वन्दन ॥
इसी बात को यहाँ सद्गुरू आचार्य तारणस्वामी-इस तीसरी गाथा में कह रहे हैं, इतनी सरलता, सहजता से अपनी निधि की विधि, सम्यग्दर्शन, धर्म की उपलब्धि बताई है। सुनें, समझें, मानें तो इसी में अपना भला हो और इसमें ही मनुष्य भव की सार्थकता, यही सच्चा पुरूषार्थ है। प्रश्न - जिसे सम्यग्दर्शन, निज शुद्धात्मानुभूति हो जाती है वह फिर
क्या करता है, कैसा रहता है, संसार कैसा लगता है, यह
बतलाइये? इस प्रश्न का समाधान करने के लिये सद्गुरू श्रीजिन तारणस्वामी चौथी गाथा कहते हैं
गाथा-४
संसार दुष्यं जे नर विरक्तं, ते समय सुद्धं जिन उक्त दिस्टं। मिथ्यात मय मोह रागादि षंडं, ते सुद्ध दिस्टी तत्वार्थ सार्धं ॥