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[मालारोहण जी
प्रश्न- क्या इन सब साधनों से आत्मानुभूति सम्यग्दर्शन हो जायेगा ? समाधान - आत्मानुभूति, सम्यग्दर्शन तो सहजसाध्य है, अपने स्वरूप का दर्शन ही सम्यग्दर्शन है, अपने स्वरूप का बोध ही सम्यग्ज्ञान है और अपने स्वरूप में लीन रहना ही सम्यग्चारित्र है, बाहरी साधन निमित्त हैं, पात्रता की बात तो अपनी है
खुदा की तस्वीर हृदय के आईने में है गालिब । जब चाहा, जरा गरदन झुकाई देख ली |
गरदन झुक जाये और अपना स्वरूप दिख जाये बस यही महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार स्वर्ण और पाषाण मिले हुये चले आ रहे हैं और भिन्न-भिन्न रूप हैं, तथापि अग्नि के संयोग बिना, प्रगट रूप से भिन्न होते नहीं । अग्नि का संयोग जब पाते हैं, तभी तत्काल भिन्न-भिन्न होते हैं। उसी प्रकार जीव और कर्म का संयोग अनादि से चला आ रहा है। जीव-कर्म भिन्न-भिन्न हैं। तथापि भेदज्ञान से शुद्ध स्वरूप अनुभव बिना प्रगट रूप से भिन्न-भिन्न होते नहीं। जिस काल शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है, उस काल भिन्न-भिन्न होते हैं। (समयसार कलश ४५)
प्रश्न -
जब यह अपना ही स्वरूप है और सहज साध्य है फिर इसकी अनुभूति हमें क्यों नहीं होती यह हमें क्यों नहीं दिखता ? समाधान - इसे देखने की इतनी तड़फ लगन हमें हो तो क्यों नहीं दिखाई देगा, अवश्य दिखाई देगा। जैसे सिनेमा देखने, टी.वी. पर कोई कार्यक्रम देखने की हमें कितनी लगन होती है कि सब काम छोड़कर समय से पहले पहुँच जाते हैं। क्या इतनी भी लगन हमें आत्म स्वरूप को देखने जानने की है ? जैसे धन के लिए रात-दिन लगे रहते हैं, खाना-पीना छोड़ देते हैं, मरने जीने की फिकर नहीं करते, जो कि भाग्य से मिलना होगा तो मिलेगा, न मिलना होगा तो कितना ही प्रयत्न करें नहीं मिलेगा। क्या इसका शतांश भी धर्म की तरफ लगन है ? धर्म को, अपने आत्म स्वरूप सम्यग्दर्शन को हम संसार में ही उलझे हुये वैसे ही चाहते हैं, हमारी लगन रूचि कहाँ की है, क्या है ? कभी इसकी तरफ देखा ? अरे यह तो वह अमूल्य निधि है जिसके प्राप्त
गाथा क्रं. ३ ]
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होने पर तीन लोक चरणों में झुकता है, जिसके होते ही अट्ठावन लाख योनियों का जन्म-मरण का चक्कर छूट जाता है, जीवन मे सुख शांति आ जाती है। क्या कभी हमें ऐसा विचार आया कि अपने स्वरूप को जाने बिना हमारा भला होने वाला नहीं है। धर्म ही एक मात्र कल्याणकारी है क्या कभी ऐसा भाव पैदा हुआ ? हम अपने इस अमूल्य मानव जीवन को कहाँ कैसा गवाँ रहे हैं? हमें यह कुछ होश ही नहीं है। जबकि यह मनुष्य भव बड़े सौभाग्य से अपना आत्म कल्याण करने मुक्त होने के लिये मिला है, जिसे हम धन, शरीर, परिवार के मोह में कैसे गवां रहे हैं ? इसका भी विचार नहीं है। जबकि दौलतरामजी ने कहा है -
यह मानुष-पर्याय सुकुल सुनियो जिनवाणी । इहि विधि गये न मिले सुमणि ज्यों उदधि समानी ॥ मानस में कहा है कि
बड़े भाग्य मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सद ग्रन्थन गावा । साधन धाम मोक्ष करि द्वारा, पाई न जेहि परलोक संभारा ॥
सोनर निंदक मूढमति, आतम हनि गति जाई । जो न तरहिं भवसागर, नर समाज अस पाई ॥
स्वयं से विचार करें कि हम क्या चाहते हैं ? हम जो चाहें वह रह सकते हैं, वैसा बन सकते हैं, यह स्वतंत्रता वर्तमान जीवन में हमें मिली है।
प्रश्न -
यह बात सत्य है कि हमारी लगन रूचि अपने आत्म कल्याण करने धर्म को इष्ट मानने की नहीं है, अभी तक अपने आपको धोखे में ही रखे रहे और अज्ञान अंधकार में ही डूबे रहे, पर अब यह बात समझ में आई कि वास्तव में धर्म क्या है ? और अब सम्यग्दर्शन पूर्वक मुक्ति पाना ही है, इसके लिये आप उपाय बताईये, अब इस संसार में नहीं रहना, जन्म-मरण के चक्कर से छूटना ही है ?
समाधान - ठीक है, यह भावना शुभ है, श्रेष्ठ है पर यह भावुकता है या