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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.२७]
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के प्रति मूर्छा नहीं होती, मुनिराज कभी ऐसी इच्छा नहीं करते कि जगत में मेरा माहात्म्य या मान बढ़े, मुनि को तो चारों गतियों के भव से ही वैराग्य वर्तता है, तो देवगति की भी इच्छा नहीं करते, उनका बाह्य तप ऐसा है कि पांचों इन्द्रियों के भोग से भी मन टूट गया है।
मुनि अपने जिम्मेदारी कोई कार्य नहीं लेते। समाज, सम्प्रदाय, मन्दिर, तीर्थ आदि की व्यवस्था संभालने का कोई विकल्प भी नहीं रखते, किसी तरह के प्रपंच में नहीं उलझते । प्रचुर स्व संवेदन ही मुनि का भावलिंग है और देह की नग्नता, वस्त्र, पात्र रहित निग्रंथ दशा यह उनका द्रव्यलिंग है। संयम, तप, ध्यान, समाधि आदि का शुभ राग आता है लेकिन वस्त्रग्रहण या अधः कर्म ताहश उद्देशिक आहार ग्रहण का भाव नहीं होता। जाति-पांति,ऊँच-नीच, बड़े-छोटे का भेद भाव नहीं रखते, समदृष्टि, समभाव में रहते हैं।
जिसे राग का रस है, वह राग भले ही भगवान की भक्ति का हो, या तीर्थयात्रा का हो, वह साधु भगवान आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द रस से रिक्त है मिथ्यादृष्टि है।
मुनि धर्म शुद्धोपयोग रूप है। पुण्य-पाप रूप शुभाशुभ भाव धर्म नहीं है परन्तु शुद्धोपयोग ही धर्म है।
मुनिराज बाईस परीषह को सहन करते हैं। जो हठ से परीषह को सहन करते हैं, उन्हें धर्म तो नहीं है पर शुभ भाव भी नहीं है। जिन्हें आत्मा के भानपूर्वक शुद्धोपयोग हुआ है, उन्हें परीषह के काल में उस ओर का विकल्प ही नहीं उठता। आत्म स्वभाव को साधने का नाम ही साधु है।
जो तत्व ज्ञानी हैं उनका समस्त आचरण वीतराग भाव अनुसार होता है। सम्यग्दृष्टि जीव आत्म ज्ञान पूर्वक आचरण पालते हैं।
मुनि बारम्बार आत्मा के उपयोग की आत्मा में ही प्रतिष्ठा करते हैं। उनकी दशा निराली पर के प्रतिबन्ध से रहित केवल ज्ञायक में प्रतिबद्ध, मात्र निज गुणों में ही रमण शील निरालम्बी होती है। जिन्होंने मोक्ष पथ (तारण पंथ) में प्रयाण प्रारम्भ किया है उसे पूर्ण करते हैं। जैसे-आंख में किरकिरी नहीं पुसाती उसी प्रकार चैतन्य परिणति में विभाव नहीं पुसाता। यदि साधक
को बाह्य में प्रशस्त-अप्रशस्त राग में दुःख न लगे और वीतरागता में सुख न लगे, आनन्द न आवे तो वह साधक ही नहीं है।
ज्ञानी को संसार का कुछ नहीं चाहिए,वे संसार से विमुख होकर मोक्ष के मार्ग पर चल रहे हैं, स्वभाव में सुभट हैं। अन्तर में निर्भय हैं. किसी से डरते नहीं हैं किसी कर्मोदय या उपसर्ग का भय नहीं है। मुनिराज को पंचाचार, व्रत नियम इत्यादि सर्व शभ भावों के समय भेदज्ञान की धारा शुद्ध स्वरूप की चारित्र दशा निरन्तर चलती ही रहती है।
साधु, समाधि परिणत हैं वे ध्रुव स्वभाव ज्ञायक स्वरूप का अवलम्बन लेकर विशेष - विशेष समाधि सुख प्रगट करने को उत्सुक हैं। स्वरूप में कब ऐसी स्थिरता होगी जब श्रेणी लगकर पूर्ण वीतराग दशा प्रगट होगी? कब ऐसा अवसर आयेगा जब स्वरूप में उग्र रमणता होगी और आत्मा का परिपूर्ण स्वभाव केवलज्ञान प्रगट होगा?
कब ऐसा परम ध्यान जमेगा कि आत्मा शाश्वत रूप से शुद्ध स्वभाव में ही रह जायेगा? ऐसी साधना करने वाले साधु समस्त कर्मो का क्षय करके अपने अनन्त गुणों को प्रगट कर रत्नत्रय मालिका से सुशोभित हो मुक्ति श्री का वरण करते हैं।
प्रश्न १-यहाँ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से शुद्ध है और मिथ्यात्व, रागादि, असत्पना छूट गया है, इससे क्या प्रयोजन है? इसे दोहराने की क्या बात है?
समाधान- यही रहस्य है, जिसे बार - बार दोहराया जा रहा है क्यों कि सामान्य व्यवहार आगम की अपेक्षा सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र को व्यवहार और निश्चय दो प्रकार कहा गया है। सच्चे देव, गुरू, धर्म का श्रद्धान, सात तत्वों का श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन है। भेदज्ञान पूर्वक निज शुद्धात्मानुभूति, निश्चय सम्यग्दर्शन है। सत्ताईस तत्वों का ज्ञान व्यवहार सम्यग्ज्ञान है और स्व-पर का यथार्थ निर्णय निश्चय सम्यग्ज्ञान है। संयम, तप, अणुव्रत, महाव्रत, का पालन व्यवहार चारित्र है। अपने आत्म स्वरूप ममल स्वभाव में लीन होना निश्चय चारित्र है इसलिए सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र से शुद्ध हैं तथा मिथ्यात्व, रागादि, असत्पना छूट गया है, का मतलब दर्शन मोहनीय