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[मालारोहण जी
गाथा क्रं.२५]
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पड़ा है, यह दूर न हो और अपने आत्म गुण विकसित न हों, तब तक यह रत्नत्रय ज्ञान गुणमाला स्पष्ट दिखती नहीं है। अनुभव में तो आ गई, उसका स्वरूप अतीन्द्रिय आनन्द पूर्ण परमात्म स्वरूप प्रत्यक्ष वेदन में आ गई, अब इसके लिए जो शुद्ध दृष्टि अपने त्रिकाली ध्रुव स्वभाव की साधना करते हैं और यह कब होती है? जब आशा, भय,स्नेह, लोभ आदि छट जाते हैं.जो अव्रत दशा से ऊपर उठता है, वह आत्म पुरूषार्थी जीव अपना स्व-कार्य साधने में सफल होता है। जिसका ज्ञान, रागादि भाव और विकल्प से भिन्न होकर अपने सत्स्वरूप का निर्विकल्प अनुभव करता है, वहाँ अपूर्व शान्ति का वेदन होता है।
ऐसी स्वानुभव दशा होते ही, अन्तर में खुद को पक्का निश्चय हो चुका कि अब मैं मोक्ष के मार्ग में हूँ, अब मेरे भव का अन्त आ गया, अब मैं सिद्ध भगवान के समाज में शामिल हो गया भले ही मैं छोटा हैं. अभी मेरा साधक भाव अल्प है, तो भी मैं सिद्ध के समान ही हूँ। मेरे गुण प्रगट होने पर मैं भी पूर्ण परमात्मा हूँ , इसी लक्ष्य इसी भावना को लेकर अपने अचिन्त्य आत्म वैभव को निज में देखकर साधक परम तप्ति का अनुभव करता है।
अभी ग्रहस्थ दशा में परिवार सहित है, फिर भी उसकी ज्ञानचेतना उन सब से जल में कमलवत् अलिप्त रहती है; अत: वह कर्मों से लिप्त नहीं होता, परन्तु छूटता ही जाता है।
जिसको ऐसा स्वानुभव होता है, उसे ही उसका भान होता है। बाकी वाणी से, बाह्य चिन्हों से या राग से उसकी पहिचान नहीं होती।
ज्ञानी की स्वानुभूति का पथ जगत से निराला है, ऐसे अभूतपूर्व आनन्द की अनुभूति लिए उसे मस्ती जागृत होती है. ज्ञानी की अदभुत मस्ती को ज्ञानी ही पहिचानता है, उसकी गम्भीरता उसके अन्दर में समायी रहती है।
वह अकेला ही अन्तर में आनन्द का अनुभव करता हुआ, मोक्ष पथ पर चला जा रहा है, उसे जगत की परवाह नहीं रहती। धर्म के प्रसंग में तथा धर्मात्मा के संग में उसको विशिष्ट उल्लास आता है।
अन्तर शुद्ध द्रव्य रूप, निष्क्रिय, ध्रुव, चिदानन्द वह निश्चय तथा उसके अवलम्बन से प्रगट हुई निर्विकल्प, मोक्षमार्ग दशा व्यवहार है।
अध्यात्म का ऐसा निश्चय - व्यवहार ज्ञानी ही जानता है।
पर द्रव्य को छोड़ने से गुणस्थान बढ़े, ऐसा नहीं है। वस्त्र लंगोटी होने पर पाँचवां व लंगोटी छोड़ने पर छठा- सातवां गुणस्थान हो, ऐसा नहीं है किन्तु अन्तर में द्रव्य को ग्रहण कर उसके आचरण की उग्रता होने पर वैसे गुणस्थान स्वयमेव प्रगट होते हैं, और उससे गुणस्थान बढ़ता है और बाह्य में गुणस्थानानुसार निमित्त, सम्बन्ध-कर्मोदय छूट जाते हैं।
आत्म गुणों का प्रगट होना, बढ़ना ही गुणस्थान क्रम है।
गुणस्थान अनुसार ही ज्ञान,उसी अनुसार क्रिया होती है वैसे ही भाव होते हैं। कोई चौथे गुणस्थान में केवलज्ञान अथवा मन: पर्ययज्ञान नहीं होता तथा गुणस्थान के विपरीत आचरण हो, ऐसा भी नहीं हो सकता।
सम्यग्दृष्टि उदय भाव के आधीन नहीं है, वह तो अन्तर स्वभाव पर अवलम्बित है। धर्मी को निज स्वभाव का आलम्बन हमेशा रहता है।
शायक प्रमाणशान तथा यथानुभव प्रमाण स्वरूपाचरण चारित्र है।
बाह्य क्रियानुसार अथवा शुभरागानुसार चारित्र नहीं होता, वह तो अन्तर अनुभव प्रमाण होता है । इसकी साधना करता हुआ साधक अपने बहुत गुणों से समृद्धवान होता है, तब उसे यह रत्नत्रयमयी ज्ञान गुण माला हृदय कंठ पर झुलती दिखती है अर्थात् उसे अपने स्वरूप का स्मरण ध्यान रहता है और वह हमेशा आनन्द-परमानन्द में रहता हुआ, कर्मों का क्षय करता हुआ, मुक्ति मार्ग में आगे बढ़ता है।
राजा श्रेणिक ने जब यह सुना तो उसे अति आनन्द, उत्साह, बहुमान, जागृत हुआ और वह जय-जयकार मचाता हुआ कहने लगा कि प्रभो! आपके प्रताप से मुझे अपना स्वरूप प्राप्त हुआ, आत्मा में अपूर्व भाव जाग्रत हुये, अब इस स्वरूप को पूर्णत: प्रगट करके अल्पकाल में ही मैं परमात्मा बन जाऊँगा। जहाँ हमेशा के लिए सिद्धालय में अनन्त सिद्धों के साथ विराजमान रहूँगा।
जय हो, जय हो, महान जैन धर्म की जय हो। भगवान महावीर स्वामी की जय हो।