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[मालारोहण जी
सम्यक्त्व होता है । स्व-पर के ऐसे यथार्थ श्रद्धान के साथ निज शुद्धात्मानुभूति होना, वह निश्चय सम्यग्दर्शन है।
स्व-पर की श्रद्धा में या देव, गुरू, शास्त्र, की श्रद्धा के समय में निश्चय सम्यक्त्व निज शुद्धात्मानुभूति ही इष्ट श्रेयस्कर है।
जिसको शुद्धात्म श्रद्धान रूप निश्चय सम्यक्त्व नहीं है वह जीव सम्यक्त्वी ही नहीं है, अकेले व्यवहार को सम्यक्त्व ही नहीं कहते ।
जब निज शुद्धात्मानुभूति निश्चय सम्यक्त्व हो, तब ही जीव को चौथा गुणस्थान होता है और तब ही वह सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
यहाँ यह समझना है कि स्व-पर के श्रद्धान सहित शुद्धात्मानुभूति आवश्यक है। शुद्धात्मा का श्रद्धान स्वानुभव वह निश्चय सम्यक्त्व है, इसकी विद्यमानता में ही स्व-पर के श्रद्धान को या देव, गुरू, धर्म की श्रद्धा को सच्ची श्रद्धा कहने में आती है। निश्चय से रहित अकेले शुभ राग रूप व्यवहार के द्वारा जीव सम्यक्त्वी नहीं कहलाता जिसको निश्चय सम्यक्त्व हो, उसको ही सम्यक्त्वी कहते हैं ।
चतुर्थ गुणस्थान से ही सभी जीवों को स्वानुभूति सहित निश्चय सम्यक्त्व होता है। ऐसे निश्चय सम्यक्त्व के बिना धर्म या मोक्ष मार्ग का प्रारम्भ नहीं होता, इसलिए इसको पक्का करने के लिए दो बार कहा है कि जिसको निश्चय सम्यक्त्व है और जो जिनेद्र परमात्मा ने कहा है, वह सत्य है, ऐसा अपने अनुभव से प्रमाण कर उसकी साधना करता है अर्थात् उस दशा का पुरुषार्थ करता है तथा आशा, भय, लोभ, स्नेह को छोड़ दिया है, जिसके यह छूट गये हों, वह इस रत्नत्रय मालिका को अपने हृदय कंठ में झुलती हुई देखता है अर्थात् जो मोह के चक्कर से छूट गया हो, जिसकी अव्रत दशा छूट गई हो, जो श्रावक पंचम गुणस्थानवर्ती हो, उसे अपने शुद्धात्म स्वरूप का स्मरण ध्यान रहता है। वह निराकुल आनन्द में रहता है।
प्रश्न- यह आशा, भय, लोभ स्नेह क्या हैं, इनका आत्मा से क्या संबन्ध है ?
समाधान - आशा - चाह को आशा कहते हैं। यह काम अभी नहीं हुआ, लेकिन अब हो जायेगा, ऐसा नहीं हुआ, तो ऐसा हो जायेगा, यह माया का
गाथा क्रं. २४ ]
चक्कर ही आशा है, और संसारी जीव इसी आशा से जीते हैं। स्त्री, पुत्र, परिवार, धन, वैभव, परिग्रह इसी आशा की पूर्ति के लिए हैं। अगर आशा न हो, तो फिर इनकी क्या जरूरत है ? आशा क्या है ?
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आशा नाम नदी मनोरथ जला, तृष्णा तरंगा कुला । राग ग्राहवती वितर्क विहगा, धैर्य द्रुमध्वंसिनी ॥ मोहावर्त सुदुस्तरातिगहना, प्रोतुंगचिंता तटी । तस्या पारगता विशुद्ध मनसो, धन्यास्तु योगीश्वराः ॥ यह आशा मोह की तीव्रता में होती है, जो अज्ञान भाव है। अव्रत दशा में रहते यह छूटती नहीं है।
भय - विभ्रम, शंकित, डरने को कहते हैं। सम्यग्दृष्टि के संसारी सात भय तो छूट गये हैं पर अभी नो कषाय रूप भय तथा संज्ञा रूप भय सत्ता में पड़ा है, इस कारण कर्मोदय जन्य स्थिति में भयभीतपना होता है, यह भी अज्ञान भाव है। मोह के कारण ही शंका-कुशंका भय होता है, यह भी अव्रत दशा में रहते छूटता नहीं है।
लोभ - परिग्रह की मूर्च्छा, धन वैभव की चाह, संग्रह करने को लोभ कहते हैं। लोभ पाप का बाप होता है, जब तक पापादि के संयोग में अव्रत दशा में रहते हैं, तब तक यह होता है, इसी से नाना प्रकार के विकल्प भय और चिन्ता होती है।
स्नेह लगाव, अपनत्व, प्रियता, प्रेम भाव को स्नेह कहते हैं, स्नेह का बंधन ही संसार है, यह रेशम की गांठ की तरह सूक्ष्म होता है, सहज में नहीं छूटता, यह प्रमाद का अंग भी है, स्त्री आदि के स्नेह वश ही जीव संसार में रूलता है।
यह सब चारित्र मोहनीय के कारण अव्रत दशा में होते हैं और इनके रहते जीव अपने स्वभाव की ओर दृष्टि नहीं कर सकता। आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है, यह आत्मा के स्वभाव में हैं ही नहीं, पर जब तक विभाव रूप परिणमन है, और अव्रत भाव मौजूद है, तब तक यह सब होते हैं, और इनके होते हुए जीव अपने स्वरूप की साधना नहीं कर सकता।
विषयों की आशा नहीं जिनके, साम्य भाव धन रखते हैं। ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुःख समूह को हरते हैं ।