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श्री कमलबत्तीसी जी सत्ता है फिर किसी से प्रयोजन क्या है? अब तो इतने ही निस्पह आकिंचन वीतरागी अपने में निर्भय, निर्द्वद, प्रसन्न, आनन्दमय रहना है, तभी ज्ञानी होने की सार्थकता है और यह कर्म क्षय होंगे। मन तो बड़ा नीच निकृष्ट है, उसकी तरफ क्यों देखते हो? सामने वेदक सम्यक्त्व, अप्रत्याख्यान कषाय, राग का सद्भाव है जो भयभीत भ्रमित करता है। अब अपनी सत्ता शक्ति का खेल है। धर्म-कर्म वरदान बने हैं, सब शुभ योग हैं। सद्गुरू की कृपा आशीर्वाद है , होनहार उत्कृष्ट है, काललब्धि आ गई, यह सम्यक्दर्शन ज्ञान की महिमा बरस रही है। जीवन में पूर्ण समता, शांति, निराकुलता, निःशल्यता, निश्चिन्तता है ही, पुण्यानुबंधी पुण्य का उदय है। बस यह थोड़ी
सी कसर, अशुद्ध पर्याय में चल रही है, सो यह अपने उमंग, उत्साह में प्रसन्न, निद्व रहने पर स्वयं के स्वाभिमान, बहुमान जागने पर, परमात्म शक्ति के प्रगट होने पर अपने आप शुद्ध हो जायेगी। अब इतनी दृढ़ता, निर्भयता, हिम्मत से काम लेने की जरूरत है कि किसी भी कर्मोदय, पर्याय, भावादि से दबो,चिपटो मत, भयभीत, भ्रमित मत होओ, अपने में दृढ़ स्थित स्वस्थ मस्त रहो, यह मन के चक्कर में मत फंसो। अपना प्रभुत्व, परमात्म शक्ति जाग्रत रखो, यही श्रेष्ठ, इष्ट, प्रयोजनीय है।
ज्ञानी हो, ज्ञायक हो गये जरा और दृढ़ता धरो। यह राग की फिसलन और खत्म करो। जब जगत में रहना नहीं है। किसी से कुछ लेना-देना नहीं है मतलब नहीं हैं, जो होना है वह निश्चित अटल है। शरीरादि की सब व्यवस्था, अनुकूलता, उसकी पात्रता-भाग्यानुसार है ही, हो रही है और होगी। जब एक-एक पर्याय, एक-एक परमाणु, एक-एक समय का परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है, उसे टाला-फेरा-बदला, रोका जा सकता नहीं है। जगत के सब जीव सब द्रव्यों का त्रिकालवी परिणमन, क्रमबद्ध, निश्चित अटल है और स्वयं सच्चिदानन्द घन, परमब्रह्म परमात्मा, टंकोत्कीर्ण अप्पा सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा, ध्रुव तत्व अपने में अटल, अचल, परिपूर्ण,परमानन्दमयी, ममल स्वभावी हो, तो बताओ, अब क्या करना है? अब पर से, पर्याय से, संसार से तो कोई सम्बन्ध ही नहीं है और बीच में चलते इस पूर्वबद्ध कर्मोदय जन्य चक्र से भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि यह भी सब स्वतंत्र अपने-अपने में चल रहा है, हो रहा है और गलता-विलाता जा रहा है, क्षय होता चला जा रहा है।
अब तो अपनी ही दृढ़ता, विज्ञान घन बनने और ध्रुव स्वभाव ध्रुव धाम में
श्री कमलबत्तीसी जी ही अभय, स्वस्थ, अडोल, अकम्प रहने की बात है। जितने उत्साह, उमंग में प्रसन्न, कमल भाव में रहोगे, ममल स्वभाव की साधना करोगे. मक्ति श्री से रमण करोगे, अतीन्द्रिय आनन्द भोगोगे, अमृत रस पिओगे, अपने ध्रुवतत्व शुद्धात्म स्वरूप ममल स्वभाव में लीन रहोगे, यह पर पर्याय-संसार को न देखकर अपने शुद्धात्म प्रकाश को देखोगे, शुद्ध दृष्टि रखोगे उतने परमानन्द में रहोगे और इसी से यह कर्मोदय,पर्याय गलेगी. विलायेगी। अपनी पर्याय में शुद्धि आयेगी, अपने अनन्त गुण प्रगट होंगे। मार्ग और साधना यही है। सब तुम्हारे अनुभव प्रमाण अनुभूति युत ज्ञान, श्रद्धान में है ही, अब तो सम्यक्चारित्र के लिये जोर लगाने सत्पुरुषार्थ करने की बात है। अब इस माया और राग से दृष्टि हटाओ। अपना ज्ञान-विज्ञान बल जाग्रत कर स्वयं में स्वस्थ आनंदित रहो।
प्रश्न - इतना जोर लगाने सत्पुरुषार्थ ज्ञान-ध्यान साधना करने के बाद भी यह मिथ्यात्व, कुशान, शल्य, विषय-कषाय के भाव आते हैं, कर्मोदय भयभीत करता है, इसके लिये क्या किया जाये ?
इसके समाधान में सद्गुरू श्री जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज आगे गाथा कहते हैं
गाथा-२८ जिन वयन सहकारी, मिथ्या कुन्यान सल्य तिक्तं च । विगतं विसय कसायं, न्यानं अन्मोय कम्म गलियं च ॥
शब्दार्थ- (जिन वयनं) जिनेन्द्र के वचनों को, अन्तरात्मा की आवाज को (सहकार) स्वीकार करो (मिथ्या) झठे, मिथ्यात्व (कुन्यान) कुज्ञान, विपरीत बुद्धि (सल्य) मन की मायाचारी (तिक्तं च) छूट जाती है (विगतं) विला जाते हैं,नष्ट हो जाते हैं (विसय) पाँच इन्द्रियों के विषय भोग की कामना (कसायं) अन्तर वासना, क्रोध, मान, माया, लोभ (न्यानं अन्मोय) ज्ञान का आलम्बन लो, ज्ञान का आश्रय करो, ज्ञान भाव में रहो (कम्म गलियं च) कर्म गल जाते हैं।
विशेषार्थ-श्री जिनेन्द्र परमात्मा के वचन,अन्तरात्मा की आवाज स्वीकार करो, इससे मिथ्यात्व, कुज्ञान,शल्य आदि सब छूट जाते हैं फिर यह विषयकषाय भी नष्ट हो जाते हैं। ज्ञान स्वभाव का आलम्बन लो, ज्ञान भाव में रहो तो यह सब कर्म भी गल जाते हैं।