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श्री कमलबत्तीसी जी
विशेषार्थ ज्ञानी, एकान्त और विपरीत को नहीं देखता, वह मध्यस्थ, अपने विमल शुद्ध सम भाव में रत रहता है। अपने शुद्धात्म स्वभाव में जाग्रत रहने और ममल स्वभाव में दृष्टि रखने से सारे कर्म बन्ध क्षय हो जाते हैं।
(१) एकान्त वस्तु, अनेकान्त स्वभाव रूप होते हुये भी उसे एक धर्म रूप या एकान्त रूप मानना एकान्त मिथ्यात्व है।
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(२) विपरीत - वस्तु स्वरूप से जो विपरीत हो, उसको ठीक मानना, विपरीत मिथ्यात्व है । शुद्ध निश्चय नय को एकान्त से पकड़ने वाला, निश्चयाभासी मिथ्यादृष्टि है।
व्यवहार नय को एकान्त पक्ष से पकड़ने वाला व्यवहाराभासी मिथ्यादृष्टि है। दोनों को एक सा मानने वाला उभयाभासी मिथ्यादृष्टि है।
ज्ञानी न निश्चय को पकड़ता है, न व्यवहार को पकड़ता है। वह तो नय से अतीत समभाव में अपने विमल शुद्ध स्वभाव को देखता है।
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जीव में कर्मबंध हुआ है तथा स्पर्शित है, ऐसा व्यवहार नय का कथन है, और जीव में कर्म अबद्ध और अस्पर्शित है, ऐसा शुद्ध नय का कथन है। जीव कर्म से बंधा हुआ है तथा नहीं बंधा हुआ है, यह दोनों नय पक्ष हैं। उनमें से किसी ने बंध पक्ष ग्रहण किया, उसने विकल्प ही ग्रहण किया, किसी ने अबन्ध पक्ष ग्रहण किया, तो उसने भी विकल्प ही ग्रहण किया, और किसी ने दोनों पक्ष लिये, तो उसने भी पक्ष रूप विकल्प ग्रहण किया परन्तु ऐसे विकल्पों को छोड़कर जो कोई भी पक्ष को ग्रहण नहीं करता, वही शुद्ध पदार्थ का स्वरूप जानकर उस रूप समयसार, शुद्धात्मा को प्राप्त करता है।
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नय पक्ष को ग्रहण करना राग है इसलिये समस्त नय पक्ष को छोड़ने से वीतराग समयसार हुआ जाता है।
जब तक कुछ भी पक्षपात रहता है, तब तक चित्त का क्षोभ नहीं मिटता । जब नयों का सब पक्षपात दूर हो जाता है तब वीतराग दशा होकर स्वरूप की श्रद्धा निर्विकल्प होती है । स्वरूप में प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होता है।
इस प्रकार जिसमें बहुत से विकल्पों का जाल अपने आप उठता है। ऐसी बड़ी नय पक्ष कक्षा को उल्लंघन करके जो तत्व वेत्ता-भीतर और बाहर समता रस रूपी एक रस ही जिसका स्वभाव है। जो अनुभूति मात्र एक अपने स्वरूप को प्राप्त करता है। चैतन्य का अनुभव होने पर समस्त नयों का विकल्प रूपी इन्द्रजाल उसी क्षण विलय को प्राप्त होता है ।
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श्री कमलबत्तीसी जी
विपुल महान चंचल विकल्प रूपी तरंगों के द्वारा उड़ते हुये इस समस्त इन्द्रजाल को, जिसका स्फुरण मात्र ही तत्क्षण उड़ा देता है वह चिन्मात्र तेजपुंज विमल शुद्ध स्वभावी मैं हूँ। ऐसा ज्ञानी मध्यस्थ सम भाव में रहता है।
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जैसे केवली भगवान सदा नय पक्ष स्वरूप के साक्षी (ज्ञाता दृष्टा) हैं। उसी प्रकार श्रुतज्ञानी भी जब समस्त नय पक्षों से रहित होकर शुद्ध चैतन्य मात्र का अनुभव करते हैं, तब वे नय पक्ष के स्वरूप के ज्ञाता ही हैं, यदि एक नय का सर्वथा पक्ष ग्रहण किया जाये तो मिथ्यात्व के साथ मिला हुआ राग होता है, प्रयोजन वश एक नय को प्रधान करके उसका ग्रहण करे तो मिथ्यात्व के अतिरिक्त मात्र चारित्र मोह का राग रहता है और जब नय पक्ष को छोड़कर वस्तु स्वरूप को मात्र जानते ही हैं तब उस समय श्रुतज्ञानी भी केवली की भाँति वीतराग जैसे ही होते हैं।
चित्स्वभाव के पुंज द्वारा ही अपने उत्पाद-व्यय-६ -ध्रौव्य किये जाते हैं, ऐसा जिसका परमार्थ स्वरूप है इसलिये जो एक है, शुद्ध है, ममल है। ध्रुव स्वभाव को मैं समस्त बन्ध पद्धति को दूर करके अर्थात् कर्मोदय से होने वाले सर्व भावों को छोड़कर अपने शुद्ध स्वभाव का अनुभव करता हूँ। जब ऐसी शुद्ध स्वभाव की स्थिति ममल स्वभाव की दृष्टि होती है तो सारे कर्म क्षय हो जाते हैं।
पर्याय में अपने ही कारण अशुद्धता है, ऐसा न मानकर जो यह माने कि अकेला आत्मा ही शुद्ध है तो वह निश्चयाभाषी है तथा जो रागादि व्यवहार होता है, उसे आदरणीय मानने वाला व्यवहाराभाषी है, वे दोनों ही मिथ्यादृष्टि हैं।
किसी ज्ञानी का धारणा ज्ञान अल्प हो परन्तु प्रयोजनभूत ज्ञान तो समीचीन होता है अतः विरोध नहीं होता। वह कदाचित् विशेष स्पष्टीकरण न कर सके परन्तु उसे स्वभाव की अपेक्षा तथा पर की उपेक्षा होने से ज्ञान प्रति समय विशेष- विशेष निर्मल होता जाता है। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी स्वभाव की श्रद्धाज्ञानपूर्वक जितना वीतराग भाव हुआ उतना संवर धर्म है। उस समय पूर्व कर्म बंध क्षय होते हैं तथा उसी समय जो रागांश है, सो आश्रव है। एक ही समय में ऐसे दोनों भाव मिश्र रूप हैं। धर्मी जीव उनको भिन्न-भिन्न