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श्री कमलबत्तीसी जी प्रश्न - इसके लिए कैसी साधना करना पड़ती है? इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं -
गाथा-१९ अप्पा अप्प सहावं, अप्पा सुद्धप्प विमल परमप्पा । परम सरूवं रूवं, लवं विगतं च ममल न्यानस्य ॥
शब्दार्थ-(अप्पा) आत्मा (अप्प सहाव) आत्म स्वभावी है इसकी उपमा पर से नहीं दी जा सकती (अप्पा) आत्मा (सुद्धप्प) शुद्धात्मा (विमल) सर्व कर्म मलों से रहित (परमप्पा) परमात्मा है (परम सरूव) परम स्वरूप, ॐकार स्वरूप, ब्रह्म स्वरूप (रूवं) अपना स्वरूप है (रूवं विगतं च) रूपी पुद्गल शरीरादि कर्म संयोग के हटते, छूटते ही (ममल न्यानस्य) ममल स्वभावी ज्ञान मात्र है।
विशेषार्थ- आत्मा, आत्म स्वभाव अपने आप में अद्वितीय है. इसकी उपमा पर से नहीं दी जा सकती, अपने स्वभाव से परम ज्ञान मयी है। चैतन्य तत्व दैदीप्यमान अरूपी तत्व है । वह आत्मा मैं स्वयं ही शुद्धात्मा, सर्व कर्म मलों से रहित विमल परमात्मा हूँ।
निज स्वरूप टंकोत्कीर्ण अप्पा, परम उत्तम, उपमा रहित सर्वश्रेष्ठ चेतना मयी है। रूपी पुद्गल शरीरादि कर्म संयोग के हटते, छूटते ही ममल स्वभावी ज्ञान मात्र सदैव शुद्ध चिन्मय चिद्रूप केवलज्ञानमयी परमात्मा है। इस सत्य का निरन्तर स्मरण, ज्ञान, ध्यान करना ही साधना है, इसी से परमानन्द मयी मुक्ति की प्राप्ति होती है।
जीव, विकार और स्वभाव को एक मान रहा है अत: यथार्थ विचार नहीं कर पाता। यदि मिथ्या धारणा में थोड़ी संधि करे. बद्धि का सदुपयोग करे तो जाने कि विकार कृत्रिम है तथा स्वभाव निरूपाधि स्वरूप है, यही भेदविज्ञान है परन्तु अज्ञानी ने तो निज स्वभाव और रागादि दोनों में एकता मानी है। दया-दानादि से धर्म होने की मान्यता, व्यवहार करे, कषाय मंद करे तो धर्म हो, ऐसी विपरीत श्रद्धा माने बैठा है। इससे हटकर जो भेदज्ञान का अभ्यास करता है उसे वस्तु स्वरूप समझ में आता है कि यह अनुभूति है, सो ही मैं हूँ। यह शरीरादि संयोग रागादि विकार सो मैं नहीं, ऐसे आत्मज्ञान होता है।
श्री कमलबत्तीसी जी ज्ञान लक्षण से लक्षित चैतन्य स्वभाव का अनुभव होने पर अनुभव ही मैं हूँ. ऐसा सम्यक्ज्ञान होता है। इसकी उपमा किसी बाह्य पर पदार्थ से नहीं दी जा सकती क्योंकि चैतन्य लक्षण ज्ञान स्वभावी मात्र आत्मा है, अन्य सब जड़ द्रव्य अचेतन हैं।
साधक को ऐसा स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि सम्पूर्ण विकार क्रियायें और पदार्थादि प्रकृति सम्भूत है, अचेतन जड़ कर्मादि जनित हैं तथा मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि भी प्राकृतिक ही हैं अत: इनके द्वारा जो चेष्टायें हो रही हैं, वे न तो मुझमें हैं,न मेरी हैं और न मेरे लिए ही हैं। वास्तविक स्वरूप में कोई चेष्टा है ही नहीं, जिस शरीर के साथ संबंध माना हुआ है, उसी में सम्पूर्ण चेष्टायें हो रही हैं।
आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, इन दस का नाम कार्य है। मन, बुद्धि, अहंकार, श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र, नासिका, वाणी, हस्त, पैर, उपस्थ और गुदा इन तेरह (अन्त: करण और बाह्यकरण) का नामकरण है। यह सब प्रकृति पुद्गल कर्म के कार्य हैं इसलिए इनके द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं के कर्तापने में भी प्रकृति, पुद्गल कर्म के कार्य हैं इसलिये इनके द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं के कर्तापने में भी प्रकृति, पुद्गल कर्म की प्रधानता है। कर्म जड़ हैं इसलिए वास्तव में उसमें कर्तृत्व - भोक्तृत्व का स्वतंत्र सामर्थ्य है ही नहीं किन्तु व्यवहार संयोगी अवस्था होने वाला, सामान्य क्रिया से लेकर निर्विकल्प समाधि तक कर्तृत्व-भोक्तृत्व सब कर्म और जीव के निमित्त, नैमित्तिक सम्बंध से ही होता है।
कर्तृत्व में क्रिया की प्रधानता होने से कर्म को हेतु कहा गया है और सुखदु:ख का अनुभव रूप ज्ञान, चेतन जीव को ही हो सकता है, कर्म जड़ को नहीं, इस अभिप्राय से चेतन जीव को सुख-दु:ख के भोक्तापने में हेतु कहा गया है, पर वास्तव में चेतन जीव सुख-दुःख का भोक्ता नहीं है।
क्रिया मात्र पुद्गल जड़ में हो रही है। जैसे-शरीर का बढ़ना, श्वास का आना-जाना, भोजन का पचना आदि क्रियायें स्वत: शरीर में हो रही हैं, किन्तु मन, बुद्धि पूर्वक होने वाली कुछ क्रियाओं को जैसे- खाना-पीना, चलना-फिरना, उठना-बैठना, बोलना आदि को साधारण मनुष्य अपने द्वारा की हुई मानता है।