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श्री कमलबत्तीसी जी
शक्ति उससे अनन्त गुणी है क्योंकि कर्मों का क्षय करके परमात्म पद आत्म वीर्य से ही होता है।
(५) चेतनत्व - चेतनपना, अनुभवपना, अपने ज्ञान स्वभाव का निरंतर अनुभव करना । कर्म का, कर्म फल का अनुभव नहीं करना । संसारी आत्मा अज्ञान दशा में रागी -द्वेषी होते हैं अतएव राग-द्वेष पूर्वक शुभ और अशुभ कार्य करने में तन्मय रहते हैं या कर्म के फलों को भोगते हुए सुख-दुःख में तन्मय हो जाते हैं। कर्म रहित शुद्ध आत्मा में मात्र एक ज्ञान चेतना है, ज्ञानानन्द का ही अनुभव है।
(६) अमूर्तत्व - यह आत्मा यद्यपि असंख्यात प्रदेशी, एक अखंड द्रव्य है तथापि यह स्पर्श, रस, गंध, वर्ण से रहित अमूर्तिक है। इन्द्रियों के द्वारा देखा नहीं जा सकता। आकाश के समान निर्मल आकारधारी ज्ञानाकार है।
इन विशेष गुणों से यह आत्मा अचेतन पर द्रव्यों से भिन्न झलकता है। आत्मा, स्वभाव से परम वीतराग शांत, निर्विकार है। अपनी ही परिणति का कर्ता या भोक्ता है। पर का कर्ता भोक्ता नहीं है। सब आत्मा स्वभाव से परम शुद्ध परमात्मा, परम समदर्शी हैं परन्तु सब आत्मा अपने-अपने में स्वतंत्र हैं, एक आत्मा का दूसरे आत्मा से कोई संबंध नहीं है। इस प्रकार अपने ज्ञान स्वभाव में रहना, यही सम्यक्चारित्र है, ध्यान है, भाव संवर, भाव निर्जरा, भाव मोक्ष है। यही कर्म क्षयकारी भाव है। इसी से पर पर्याय का संयोग, शल्यें आदि छूट जाते हैं। योगियों ने परम ऋषियों ने व अरिहंत भगवंतों ने स्वयं अनुभव करके यही बताया है कि मुमुक्षु को सदा ही अपने आत्मा का ऐसा शुद्ध ज्ञान रखना चाहिये ।
प्रश्न- आपने एक आत्मा ही आत्मा का ज्ञान ध्यान करना बताया, फिर इसमें बाहर से भी कुछ व्रत, नियम, संयम करना आवश्यक है या नहीं ?
समाधान - अध्यात्म में निश्चय नय की प्रधानता रहती है, व्यवहारनय गौण रहता है, वह साथ चलता है। जैसे पथिक के चलने पर छाया पीछे चलती है। शुद्धात्मा का अनुभव होने के पश्चात् पात्रता बढ़ने पर, पाँचवें और छठे गुणस्थान में उस प्रकार का बाह्य आचरण होता ही है। उस प्रकार के भाव आये बिना नहीं रहते, पर्याय की शुद्धता की वृद्धि अनुसार कषाय घटते जाने व्रतादि होते ही हैं। मुक्ति मार्ग में चलने में मोक्ष रूपी कार्य के लिये उपादान कारण अपने ही शुद्धात्म स्वरूप का श्रद्धान, ज्ञान, तद्रूप आचरण ध्यान ही
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है । निमित्त कारण - व्यवहार व्रत, संयम, तप आदि हैं। जब शुद्धात्मा अपने में जमेगा, रमेगा तब ही आत्मा कर्म मल से रहित होगी।
साधु के या गृहस्थ के भेष व व्यवहार चारित्र मोक्षमार्ग नहीं हैं। सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की एकता मोक्षमार्ग है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान कहते हैं। जैसेखेत में बीज बोने पर उसमें पत्ते, फूल-फल अपने आप ऊगते हैं, लगते हैं, लगाना नहीं पड़ते, इसी प्रकार धर्म मार्ग में सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र होने पर भूमिकानुसार पर्याय की शुद्धि होने पर उस प्रकार का आचरण स्वयमेव होता है, न होवे ऐसा होता ही नहीं है। मूल लक्ष्य को छोड़कर व्यवहार में फिसलना यह अज्ञान अनादि से चल रहा है।
प्रश्न- जब हम आत्मा का ध्यान करने बैठते हैं, चिंतन मनन करते हैं तब यह अब्रह्म के, विकथा, व्यसन, विषयों के नाना प्रकार के भाव चलते हैं, इनके लिए क्या करें ?
इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं -
गाथा - १५
अबंभं न चवन्तं, विकहा विसनस्य विसय मुक्तं च । न्यान सहाव सु समयं समयं सहकार ममल अन्मोयं ॥
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शब्दार्थ (अवंभं) अब्रह्म, कुशीलादि, शरीर विषयाशक्ति (न) नहीं (चवन्तं) भ्रमित होना, चकराना (विकहा) विकथा राजकथा, चोर कथा, स्त्री कथा, भोजन कथा, (विसनस्य) व्यसनों के (विसय) विषय, इन्द्रियों की भोगाकांक्षा, (मुक्तं च मुक्त हो जाते, छूट जाते (न्यान सहाव) ज्ञान स्वभाव (सु समयं ) स्व समय, शुद्धात्मा (समयं सहकार) स्व समय शुद्धात्मा का सहकार करो (ममल) ममल स्वभाव, त्रिकाली ध्रुव तत्व (अन्मोयं) लीन रहो, बार-बार चिन्तन मनन, मंथन करो।
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विशेषार्थ- शुद्धात्म स्वरूप में लीन होने से अब्रह्म भाव छूट जाता है। इसमें भ्रमित मत होओ, चकराओ मत, चारों प्रकार की विकथायें दूर हो जाती हैं। व्यसन और विषय आदि जितने भी विकार हैं, वे सभी छूट जाते हैं। हे भव्य ! कर्मोदायिक विभावों में भ्रमित मत होओ। समस्त विकारों से भिन्न ज्ञान स्वभावी स्वसमय परम पवित्र निज शुद्धात्म स्वरूप को देखो तथा हमेशा अपने ममल स्वभाव की अनुमोदना कर बार-बार चिन्तवन, मनन कर निज शुद्धात्मा में लीन और स्थिर रहो, यही सम्यग्चारित्र है और इससे यह