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श्री कमलबत्तीसी जी
भजन - २८
जय तारण तरण जय तारण तरण सदा सबसे ही बोलिये । जय तारण तरण बोल अपना मौन खोलिये ॥
श्री जिनेन्द्र वीतराग, जग के सिरताज हैं। आप तिरें पर तारें, सद्गुरू जहाज हैं । धर्म स्वयं का स्वभाव, अपने में डोलिये ..... निज शुद्धातम स्वरूप, जग तारण हार है। यही समयसार शुद्ध, चेतन अविकार है ॥ जाग जाओ चेतन, अनादि काल सो लिये.... देव हैं तारण तरण, गुरू भी तारण तरण । धर्म है तारण तरण, निजात्मा तारण तरण ॥ भेदज्ञान करके अब, हृदय के द्वार खोलिये.... इसकी महिमा अपार, गणधर ने गाई है। गुरू तारण तरण ने, कथी कही दरसाई है ॥ ब्रह्मानंद अनुभव से, अपने में तौलिये.....
भजन-२९ अरे आतम वैरागी बन जइयो.....अरे...॥ १. कोरे ज्ञान से कछु नहीं होने । दुर्लभ जीवन वृथा नहीं खोने ॥
शुद्ध स्वरूप में रम जइयो ... अरे..... २. देख लो अपनो कछु नहीं भैया । मोह में कर रहे हा हा दैया ॥
कछु तो दृढता धर लइयो... अरे..... ३. धन परिवार में कब तक मर हो । पाप कषायों में कब तक जर हो ॥
ब्रह्मचर्य प्रतिमा धर लइयो... अरे..... ४. घर में पूरो कबहुं नहीं पड़ने । मोह राग में कुढ़ कुढ़ मरने ॥
ज्ञानानंद वन चल दइयो... अरे.....
श्री कमलबत्तीसी जी भजन-३० निजको ही देखना और जानना बस काम है। पर को मत देखो यह सब कुछ बेकाम है । १. पर को ही देखते, अनादि काल बीत गया ।
पर को ही जानने में, पुद्गल यह जीत गया ।
निज को कब देखोगे, इसका कुछ ध्यान है..... २. अपने में दृढ़ता धरो, हिम्मत से काम लो।
मोह राग छोड़कर, भेदज्ञान थाम लो ॥
अपना क्या जग में है, यह तो मरी चाम है..... बहुत गई थोड़ी रही, थोड़ी भी अब जात है। स्व पर का ज्ञान करो, संयम की बात है ॥
धर्म का बहुमान करो, धन का क्या काम है..... ४. अपनी ही सुरत रखो, समता से काम लो।
अपनी ही अपनी देखो, पर का मत नाम लो॥
ज्ञानानंद जल्दी करो, थोड़ा ही मुकाम है.....
भजन-३१ हो जा हो जा रे निर्मोही आतमराम, मोह में मत भटके। १. धन शरीर परिवार से अपना, तोड़ दे नाता सारा ।
काल अनादि से इनके पीछे, फिर रहा मारा मारा ।
खोजा खो जा रे अपने में आतमराम...मोह... मात पिता और भाई बहिन यह, नहीं जीव के होते। धन शरीर और मोह में फंसकर, अज्ञानी जन रोते॥
सो जा सो जा रे समता में आतमराम...मोह... तू तो अरूपी निराकार है, अजर अमर अविनाशी। पर से तेरा क्या मतलब है, ज्ञानानंद सुख राशि ॥
बोजा बो जा रे हृदय में सम्यक्ज्ञान...मोह...