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अरिहन्त आदि देव पद, निज आत्मा में शोभते । अज्ञान मय जो जीव हैं, वे अदेवों में खोजते । जल के विलोने से कभी, मक्खन निकलता है नहीं । ज्यों रेत पेलो कोल्हुआ में, तेल मिलता है नहीं ॥ ३९ ॥ त्यों ही करे जो अदेवों में देव की अन्वेषणा | पर देव न मिलता कभी, यह जिन प्रभु की देशना ॥ देवत्व का रहता सदा, चैतन्य में ही वास है । कैसे मिले वह अचेतन में, जो स्वयं के पास है ॥ ४० ॥ चैतन्य मय सतदेव की, जो वन्दना पूजा करें। वे परम ज्ञानी ध्यान रत हो, मोक्ष लक्ष्मी को वरें | इस तरह पूजा देव की कर, गुरू का सुमरण करूं । उनके गुणों को प्रगट कर, संसार सागर से तरूं ॥ ४१ ॥
शुद्ध गुरू उपासना
जो वीतरागी धर्म ध्यानी, भाव लिंगी संत हैं । रमते सदा निज आत्मा में शांति प्रिय निर्ग्रन्थ हैं ॥
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करते मुनि ज्ञानी हमेशा, स्वानुभव रस पान हैं ।
वे ही तरण तारण गुरू, जग में जहाज समान हैं || ४२ ॥ जिनको नहीं संसार तन, भोगों की कोई चाह है । वे जगत जीवों को बताते, आत्म हित की राह है ॥ जो रत्नत्रय की साधना, आराधना में लीन हैं । व्यवहार से मेरे गुरू, जो राग-द्वेष विहीन हैं ॥ ४३ ॥ ऐसे सुगुरू के सद्गुणों का स्मरण चिन्तन मनन । करना थुति अरू वन्दना, बस है यही सद्गुरू शरण | निज अन्तरात्मा निज गुरू, यह नियत नय से जानना ।
ज्ञाता सदा रहना सुगुरू की है यही आराधना ॥ ४४ ॥
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संसार में जो अज्ञजन, कुगुरू अगुरु को मानते । वे डूबते मझधार में, संसार की रज छानते ॥ इससे सदा बचते रहो, झूठे कुगुरू के जाल से । बस बनो शुद्ध गुरू उपासक, बचो जग जंजाल से ।। ४५ ।।
शुद्ध स्वाध्याय
जिस ग्रन्थ में हो वीतरागी, जिन प्रभु की देशना । जो प्रेरणा दे जीव को, तुम करो स्व संवेदना ॥
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