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________________ तृतीय आशीर्वाद उन दोनों अर्थात् राग-द्वेष को छोड़कर वैराग्य युक्त होकर चित्त में दृढ़ता धारण करके कायोत्सर्ग गामी बनो अर्थात् शरीर से ममत्व का त्याग करो। केवलज्ञानी भगवान अपने सत्य स्वरूप में लीन लोकालोक के ज्ञायक हैं, तुम भी सत्यार्थ उपदेश को अच्छी तरह से परीक्षण कर स्वानुभव से प्रमाण कर स्वीकार करो और पाँच इन्द्रियों के समूह को वश में करो धर्म मार्ग का प्रकाशन करने वाले जिन तारण तरण मुक्ति का वरण करने वाले स्वामी हैं। युग अर्थात् चतुर्थ काल के प्रारंभ में हुए स्वयंभू आदिदेव ऋषभनाथ भगवान स्वयं तिरे और उन्होंने सबको तिरने का मार्ग बताया था, उनकी वीतराग परम्परा में 'श्री संघ' उत्पन्न हो गया - जयवंत हो। I सर्व मंगल ....... प्रधान यह जिन धर्म, वीतराग शासन सदा जयवंत हो। ५५ • श्लोकार्थ समस्त मंगलों में परम मंगल स्वरूप, सर्व प्रकार से कल्याण करने वाला, सब धर्मों में - अंतिम आशीर्वाद ....... का अर्थ - उत्पन्न अर्थात् निज शुद्धात्मानुभूति रूप उत्पन्न अर्थ (सम्यग्दर्शन) को प्रगट करो। उसी में रंजायमान (हर्षित) रहो और सानन्द वीतराग निर्विकल्प समाधि में प्रवेश करो, लीन रहो । अभी छद्मस्थ स्वभाव है । सुख स्वभाव के आश्रय से, सुख स्वभाव के बल से सभी दुःख और दुःख पूर्ण काल विला जायेगा । अप्प समुच्चय ....... दोहा का अर्थ- वीतरागी भव्य आत्मा मुनिजनों के चार समूह जानो ऋषि, यति, मुनि और अनगार । जो वीतरागी योगी अपने सिद्ध स्वरूप शुद्ध स्वभाव का स्पर्श अर्थात् अनुभव करते हैं, अपने पद की स्वानुभूति में ठहरते हैं, वे उसी समय शाश्वत सिद्ध पद प्राप्त कर लेते हैं। - दुःखम दुःखम काल ......... का अर्थ यह हुण्डावसर्पिणी पंचम 'दुःखम' काल चल रहा है, छटवां काल 'दुःखम दुःखम' है। इसके पश्चात् आगामी उत्सर्पिणी का प्रारम्भ 'दुःखम दुःखम' काल से होगा, पश्चात् पुन: पंचम काल 'दुःखम' होगा । इस प्रकार इन चारों ही 'दुःखम दुःखम' काल को खिपाकर राजा श्रेणिक का जीव चौथे काल में पद्मपुंग राजा के यहां महापद्म तीर्थंकर पद को प्राप्त होगा अतः 'दुःखम दुःखम काल खिपाय" ही पढ़ना चाहिये । - अबलबली ...... का अर्थ ( जय गुरु... ) हे परम गुरू जिनेन्द्र भगवान! आपके मुख कमल से उत्पन्न हुए अबल जीवात्मा को - रत्नत्रय की शक्ति से पोषण कर, बलवान बनाने वाले ध्रुव वचन अर्थात् अटल वचन जयवंत हों । हे मेरे मन ! चेत, जाग, अपने शुद्ध स्वभाव की अनुमोदना कर, उसी में रंजायमान होकर स्वभाव में ही रमण कर । (जय तार...) तारण तरण जिनेन्द्र भगवान की जय हो, जो पूर्ण ज्ञान ध्यान में लीन रहते हुए भव्यात्माओं के लिये तारणहार हैं, उनकी अत्यंत भक्ति पूर्वक वंदना करता हूँ। शुद्ध सम्यक्चारित्र में आचरण करके अर्थात् निर्विकल्प स्वभाव में रमण करके मैंने सर्वज्ञ देव परम गुरु अपने परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लिया है। (जय नंद...) नन्द, आनन्द, चिदानन्द, सहजानन्द, परमानन्द मयी स्वभाव जयवन्त हो । ध्यान प्रमाण अर्थात् जितना वीतराग भाव शुद्धोपयोग प्रगट हो रहा है उसमें उतने प्रमाण में स्वयं का विमल तीर्थंकर परमात्म स्वरूप ज्ञान में झलक रहा है, मैं ऐसे सत्स्वरूप की वंदना करता हूँ। (जय कलन...) अपने ज्ञायक स्वरूप के ध्यान की प्रगटता, रमणता और रंजायमानपना अर्थात् लीनता जिन्हें प्रगट हुई है, ऐसे निज स्वरूप में रमण करने वाले जिनराज की जय हो। परमात्म देव परम केवलज्ञान से परिपूर्ण दैदीप्यमान, स्वयं में प्रकाशमान मुक्ति रमणी के राजा हैं ऐसे जिनराज सदा जयवन्त हों। (गुरु तोहि...) हे परम गुरू स्वामी तारण तरण जिनेन्द्र भगवान (निश्चय से निज शुद्धात्म स्वरूप ) ! आपके ध्यान करने से अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। साधक से सिद्ध पद की प्राप्ति तक क्रमशः उत्पन्न अर्थ आदि पाँच अर्थ, उत्पन्न रंज आदि पाँच रंज, भय खिपक रमण आदि पाँच रमण, नन्द आदि पाँच नन्द प्रगट होते हैं, यह साधना परमात्म पद और मुक्ति को देने वाली है। आचार्य दाता ...... का अर्थ आचार्य ज्ञान अर्थात् शिक्षा और दीक्षा के देने वाले हैं, वे मोक्षमार्ग में सहायक दाता हैं और पूज्य प्रिय दाता हैं । यह कहने का प्रयोजन गुरू के प्रति श्रद्धा भक्ति का भाव व्यक्त करना है ।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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