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गुरू गौतम ..... दोहा का अर्थगुरू गौतम गणधर के चरण कमलोंकीभक्ति, हृदय रूपी सरोवर में धारण करके भावपूर्वक चरण युगल की वंदना करते हुए बहुत प्रकार के ध्यानधारणा को धारण करता हूँ। (३) मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका चार संघ सहित समवशरण की महिमा देखकर सभी भव्य आत्माओं के मन में अचरज पूर्ण आनन्द हुआ। जैन धर्म की महिमा बढ़ाने वाला, पहिचान कराने वाला महोत्सव प्रारम्भ हो गया। यहां 'उठ चल्यौ के दो अभिप्राय हैं १-प्रारम्भ हो गया। २-बिहार करने लगा। राजा श्रेणिक अत्यंत हर्ष पूर्वक वीतरागी जिनेन्द्र महावीर भगवान के सन्मुख हुए। (राजा श्रेणिक ने जिज्ञासा पूर्वक भगवान महावीर स्वामी से ६०,००० प्रश्न पूछे) और सम्पूर्ण जगत को जानने वाले परम दातार भगवान महावीर स्वामी ने राजा श्रेणिक को परमात्म स्वरूप जिनेन्द्र पद प्रदान किया अर्थात् (आगामी चौबीसी में प्रथम तीर्थंकर होने की घोषणा रूप) अकता प्रसाद दिया।शाह अर्थात् परमात्म पद त्रिलोकीनाथ स्वरूप जानो, भगवान महावीर स्वामी ने कहा कि तुम्हें उच्च गोत्र संबंधी तीर्थंकर नाम कर्म की प्रकृति का बंधहो गया है। इस प्रकार महावीर भगवान के द्वारा दिया गया प्रसाद प्रगट हुआ और इसके साथ ही जिन चौबीसी का तिलक हो गया अर्थात् एक षट्काल चक्र के चौथे काल में होने वाले चौबीस तीर्थंकर पूर्ण हुए। वही परमात्मा जो अपने स्वरूपलीनता में महा पराक्रमी पुरुषार्थी केवलज्ञान से परिपूर्ण थे जिन्होंने दया धर्म का संदेश सुनाया अर्थात् पावन दिव्य देशना प्रदान की। उन भगवान ने अगम स्वभाव को गम अर्थात् स्वानुभव प्रमाण जान लिया और अपने शुद्धात्म स्वरूप में प्रवेश कर सिद्ध स्थान को प्राप्त किया है, ऐसे सिद्धप्रभु के मंगलगाओ। मिथ्यात्व का दलन करके सिद्धांत के साधक बनना यही मुक्ति का मार्ग जानो। करनी-अकरनी सुगति-दुर्गतिका कारण है, यही पुण्य - पाप कहा गया है। संसार सागर से स्वयं तिरने और दूसरे जीवों को तारने में गुरू को जहाज के समान विशेष जानो, बनारसीदास कहते हैं कि संसार में गुरू समान और कोई भी नहीं है।
भावी तत्त्व प्रसाद.... राजा श्रेणिक १०० भाई थे, उनमें ४९ भाई राजा श्रेणिक से छोटेथे और ५० भाई बड़े थे; इसलिये राजा श्रेणिक को मध्यनायक कहा गया है। उन्होंने पूर्वोपार्जित पुण्य के प्रताप से आगामी चौबीसी में प्रथम तीर्थंकर होने के संस्कार रूप प्रसाद प्राप्त किया। विशेष -"४९ से लहुरे, ५० से जेठे"इस वाक्य में 'से' का अर्थ से के रूप में नहीं लेना चाहिये बल्कि यह भाव पूर्ण वचन प्रवाह है कि राजा श्रेणिक से ४९ छोटे और ५० बड़े थे और तभी राजा श्रेणिक मध्य में आते हैं।
श्रेणीय कथ्य नायक........श्लोकार्थआत्म स्वरूप में संतुष्ट अर्थात् अपने शुद्ध स्वभाव में लीन वर्द्धमान महावीर भगवान ने कहा कि हे राजा श्रेणिक! तुम कथा के नायक होओगे। चौथे काल के आदि में तुम पहले महान जगत पूज्य महापद्म तीर्थंकर होओगे।
चलति तारा.......श्लोकार्थतारागण चलायमान हो जायें, महल मंदिर चलायमान हो जायें, सूर्य चन्द्रमा सौर मंडल और अचल मेरू पर्वत चलायमान हो जाये, कदापि काले अर्थात् किसी समय पृथ्वी भी चलायमान हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं किन्तु सत्पुरुष के वाक्य और धर्म कभी भी चलायमान नहीं होता।
अपने पद परसत ...... वाक्य का अर्थभगवान महावीर स्वामी ने राजा श्रेणिक को आगामी चौबीसी के पहले तीर्थंकर होने का अकता (आगामी) प्रसाद दिया अर्थात् उनके तीर्थकर होने की घोषणा की। राजा श्रेणिक अपने पद का स्पर्श अर्थात् अनुभव करके आनन्द पूर्ण हुए।
आशा एक...... दोहा का अर्थएक मात्र दयालु परमात्म स्वरूप की आशा करो, जो समस्त इच्छाओं को पूर्ण करने वाली है क्योंकि संसार की सम्पूर्ण आशाओं को छोड़कर परमात्मा भी स्वरूप की आस करके मुक्ति में वास कर रहे हैं।