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गुणपाठ पूजा बारा पुंज विशेषं सिद्धं अट्ठामि षोडसीकरणं । दह धम्मं दंसण अट्ठा णाणं अट्ठामि त्रयोदशी चरणं ॥ १ ॥ ए पचहत्तर गुण सुद्धं वेदी वेदंति णाण सिरि सुद्ध । मुक्ति सुभावं दिढयं ए गुण आराह सिद्धि संपत्तं ॥ २ ॥ अरहंता छय्याला सिद्धं अट्ठामि सूरि छत्तीसा । उवझाया पणवीसा अठवीसा होति साणं ॥ ३ ॥ वर अतिशय चौंतीसा अष्ट महाप्रातिहार्य संजुत्तं । नंत चतुष्टय सहियं छय्याला अरहंत ज्ञानस्य ॥ ४ ॥ मोहक्षय सम्यक्तं केवलज्ञानेन हने अज्ञानं । केवल दरसण दरसं अनंतवीर्य अन्तरायेन ॥ ५ ॥ सुहवं च नाम कम्म आयुकर्म निरजर अवगहनं । गोत्तं अगुरुलघुत्तं अव्वावाहं च वेद वेयणियं ॥ ६ ॥ ए आइरिय अष्ट गुण दहविहि धर्मं च होय दिढ़ अप्पा । वारा तप छै अवासी छत्तीस गुण हों ति सूरेना ॥ ७ ॥ ग्यारह अंग जु सहियं चौदह पूर्वाय निरविशेषाणं । पणवीसा गुणजुक्तं णाणी णाणेण तस्य उवझाया ॥ ८ ॥ दह दरसण संभेदा भेदा होति पंच ज्ञानेया ।
तेराविधि सो चरितं अठवीसा होति साहूणं ॥ ९ ॥ इस प्रकार इन्द्र और चतुर्विध संघवन्दना स्तुति करते भये। तत्पश्चात् भगवान आदिनाथ ने चौरासी गणधर और चतुर्विध संघ सहित देश-देशांतरों में विहार कर आयु के अन्त में६ दिन का योग निरोध कर माघ वदी चतुर्दशी को कैलाशगिरि से निर्वाण पद प्राप्त किया।
॥जयन् जय बोलिये जय नमोऽस्तु ॥ जो उपदेश भगवान आदिनाथ ने दिया वही उपदेश भगवान महावीर स्वामी ने दिया।
आदि में श्री आदिनाथ देव जी भये, अन्त में श्री महावीर देव जी भये । बाईस तीर्थंकर मध्यानुगामी हए। श्री चौबीसी जी को नाम लीजे तो पुण्य की प्राप्ति होय है।