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________________ ३२ सम्मत्त सलिल पवहो, णिच्चं हियए पवट्टए जस्स । कम्मं वालुयवरणं, बंधुच्चिय णासए तस्स ॥ (दर्शन पाहुड गाथा-७) चारित्र आदिकों के द्वारा शुद्ध हुए हृदय स्थल में सम्यक्त्व रूपी सरिता का प्रवाह कर्मरूपी रेत कणों के ढेर को हटाकर चारों गतियों के बंध की प्रतारणा के नाश का कारण है। यह सम्यक्त्वरूपी जल शांत है, शांतिदायक है। कर्म आताप से व्याकुल हुए प्राणियों के दु:ख का हरनहारा है। अपने ज्ञान और चारित्रादि को साथ लिये हुए यह मोक्षमार्ग को निष्कंटक और सुलभ करनहारा जगदेक बन्धु है । याही को ग्रहण कर अनन्ते पुरुष सिद्ध सिद्धालय को प्राप्त हुए हैं और आगे होवेंगे। मुनीश्वरों के वचन सत्य हैं, ध्रुव हैं, प्रमाण हैं। ॥ जयन् जय बोलिये जय नमोऽस्तु ॥ गतोत्सर्पिणी के चतुर्थ कालान्तर्गत चतुर्विंशति तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर "श्री अनंतवीर्य स्वामी" जी का प्रसाद अवसर्पिणी के चौथे कालान्तर्गत चौदहवें प्रजापति श्री नाभिराय जी के पुत्र प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ देव जी लै उत्पन्न भये। कहा प्रसाद लै उत्पन्न भये? पंच परमेष्ठी के एक सौ तैतालीस गुण, छह यंत्र की पूजा, पचहत्तर गुण, सत्ताईस तत्वों का विचार, एक सौ आठ गुण की जाप, तीन पात्र, दान चार, वेपन क्रिया की विधि विचार। अर्हन्ता छय्याला, सिद्धं अट्ठामि सूरि छत्तीसा । उवज्झाया पणवीसा, अठवीसा होति साहूणं ॥ बारा पुञ्ज विशेषं, सिद्धं अट्ठामि षोडसी करणं । दह धम्मं दंसण अट्ठा, णाणं अट्ठामि त्रयोदशी चरणं ॥ ये पचहत्तर गुण शुद्धं,वेदी वेदंति णाण सिरि सुद्धं । मुक्ति सुभावं दिढ़यं, ये गुण आराह सिद्धि संपत्तं ॥ उत्तमं जिन रूवी च, मध्यमं च मति श्रुतं । जघन्यं तत्त्व सार्धं च,अविरतं संमिक दिस्टितं ।। गुण वय तव सम पडिमा, दाणं जलगालणं अणत्थमियं । दंसण णाण चरित्तं, किरिया तेवण्ण सावया भणिया ।। श्री आदिनाथ स्वामी की पाँच सौ धनुष ऊँची वज्रमयी काया, सवा पाँच सौ धनुष ऊँचो वट वृक्ष, चौरासी लाख पूर्व की आयु होती भई। एक पूर्व की संख्या सत्तर लाख करोड़ मित, छप्पन सहस करोड़ । इतनी वर्ष मिलाय कर, पूर्व संख्या जोड़ || स्वामी आदिनाथ देवजू ने प्रथम २० लाख पूर्व वर्ष बालक्रीड़ा करी और ६३ लाख पूर्व वर्ष राज्य शासन में व्यतीत कर शेष एक लाख पूर्व प्रमाण आयु रही, तब आदिनाथ स्वामी संसार, देह, भोगों से विरक्त होते भये, अनित्यादि बारह भावना भावते भये। तब पाँचवें स्वर्ग से ऋषीश्वर जाति के लौकांतिक देव आयकर भगवान के ज्ञान वैराग्य की स्तुति करके भगवान को वैराग्य भावनाओं में दृढ़ करते भये। तब वे आदिनाथ स्वामी
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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