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________________ बृहद मंदिर विधि- प्रस्तावना आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्यजी महाराज आत्मज्ञानी, वीतरागी, अध्यात्म योगी स्वानुभूति संपन्न शुद्ध चैतन्य प्रकाश से आलोकित, छटवें - सातवें गुणस्थान में सानन्द वीतराग निर्विकल्प समाधि में रत रहते हुए आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द अमृत रस का पान करने वाले, मोक्षमार्ग में निरतंर अग्रणी आध्यात्मिक संत थे। उन्होंने स्वयं का जीवन अध्यात्म ज्ञान ध्यान साधनामय बनाया और सभी भव्यात्माओं के लिये आत्म स्वभाव के अनुभव पूर्वक ज्ञानमार्ग में चलकर स्वभाव की साधनामय जीवन बनाने की प्रेरणा प्रदान की। साधना पूर्वक लक्ष्य की सिद्धि होती है। साधक दशा में सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अपने स्वभाव के आश्रय से निरंतर कल्याण मार्ग में अग्रसर रहता है। वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की श्रेणियों पर आरूढ़ होकर साधना से सिद्धि को प्राप्त करता है। अध्यात्म साधना के मार्ग में बाह्य क्रिया मुख्य नहीं होती। आध्यात्मिक मार्ग में सच्चे देव, गुरू के गुणों का आराधन किया जाता है। शास्त्रों का स्वाध्याय और धर्म की साधना की जाती है। पूज्य के समान स्वयं का आचरण बनाने की साधना ही परमात्मा की सच्ची पूजा विधि है। मंदिर विधि क्या है? आत्म स्वरूप ज्ञानादि अनंत गुणों का निधान है। चित्तस्वभावी प्रकाशमान है। ऐसे महिमामयी निज स्वरूप को जानने पहिचानने की विधि मंदिरविधि है। मंदिर विधि के द्वारा सच्चे देव, गुरु, धर्म का गुणानुवाद शब्दों से करना द्रव्य पूजा है तथा अपने स्वरूप का आराधन करना, परमात्म स्वरूपमय होना भाव पूजा है। मंदिर विधि वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध कराने की विधि है। यह सत्-असत् का विवेक जाग्रत कराने वाली ऐसी विधि है जिसमें सच्चे देव गुरू धर्म की विनय वंदना भक्ति सहित सच्चे-झूठे, हेयउपादेय का निर्णय करके सत्य को स्वीकार करने की प्रेरणा दी गई है। मंदिर विधि तारण समाज का प्राण है। आध्यात्मिक और धार्मिक जागरण में मंदिर विधि प्रमुख माध्यम है वहीं दूसरी ओर सामाजिक संगठन, धर्म प्रभावना में मंदिर विधि का अपना विशेष महत्व है। ___ मंदिर विधि शास्त्र सूत्र सिद्धांत की ऐसी आधार शिला है जो अन्यत्र दुर्लभ है। त्रिकाल की चौबीसी के वर्णन सहित देव गुरू धर्म शास्त्र की महिमा को बताने वाली है। जिनागम के सार स्वरूप सिद्धांत को अपने में समाहित किये हुए मंदिर विधि ज्ञान का असीम भंडार है। मंदिर विधि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की महिमा को प्रगट करने वाली है। समवशरण की महिमा, तारण पंथ का यथार्थ स्वरूप और अपने आत्म कल्याण का पथबोध कराने वाली मंदिर विधि जीव को संसार से दृष्टि हटाकर वैराग्य भावपूर्वक धर्म मार्ग में दृढ़ करके स्वरूपस्थ होकर आत्मा से परमात्मा होने का मार्ग प्रशस्त करने वाली है। मंदिर विधि क्यों करना चाहिये? संसारी कर्म संयोगी जीवन में यह जीव मन, वचन, काय, समरम्भ, समारम्भ, आरंभ, कृत, कारित, अनुमोदना, क्रोध, मान, माया, लोभ (इन सबका आपस में गुणा करने पर) १०८ प्रकार से
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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