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________________ १४९ ग्रन्थकार: संक्षिप्त जीवन परिचय भारत के इतिहास में अनेक महापुरुष अवतरित हुए हैं, जिन्होंने जनसामान्य के मन-मस्तिष्क पर अपने उज्ज्वल चरित्र और आदर्श जीवन की अमिट छाप छोड़ी है। पण्डित श्री गोपालदास जी वरैया उन्हीं में से एक हैं। उनके बलिदान, त्याग और सेवाओं की लम्बी फेहरिस्त (सूची) है,जो देश और समाज के प्रति उनके उल्लेखनीय योगदान की गवाही देती है। यही कारण है कि जैन समाज को आज भी उन पर नाज है, गौरव है। बालक गोपालदास का जन्म भारतदेश के उत्तरप्रदेश प्रान्त के आगरा शहर में सन् १८६७ अर्थात् विक्रम संवत १९२३ चैत्र कृष्ण द्वादशी के दिन वरैया जातिज और एछिया गोत्रज लाला लक्ष्मणदास जैन के परिवार में हुआ था। राजस्थान के अजमेर शहर में उनका परिचय एक जैन सद्गृहस्थ, स्वाध्यायी श्री मोहनलाल जैन की प्रेरणा से जैन साहित्य से हुआ। तभी से उनके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन हुआ और उनकी जैनधर्म के प्रति आस्था वृद्धिङ्गत होती गयी। आपने अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बल पर, बिना गुरुगम के जैनदर्शन के अनेकों ग्रन्थों का अध्ययन और उनके रहस्यों को हृदयङ्गम किया। यद्यपि पञ्चाध्यायी आदि कुछ ग्रन्थों को पढ़ने में उन्होंने पं. श्री बलदेवदास आगरा का सहयोग लिया था तथापि अधिकांश ग्रन्थों का अध्ययन उन्होंने स्वयमेव किया। संस्कृत एवं अर्द्धमागधी भाषा के प्रति उपेक्षाभाव देखकर उन्हें अत्यन्त पीड़ा का अनुभव हुआ और उन्होंने मुरैना (मध्यप्रदेश) में एक जैन संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। जैन साहित्य के अध्ययन हेतु उन्होंने श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परीक्षालय की स्थापना भी की और निःस्वार्थ भावना से उन्होंने शिक्षा, साहित्य और सांस्कृतिक चेतना को जागृत करने में अपनी महती भूमिका का निर्वाह किया । पूर्ण मनोयोग से जैनधर्म और दर्शन की प्रभावना हेतु देशभर में स्वाध्याय की प्रवृत्ति चलाकर प्रचार-प्रसार किया। उनकी बुद्धिमत्ता और धर्म के प्रति रुझान को देखकर जैन समाज ने उन्हें अनेक उपाधियों से सम्मानित किया। जैसे - स्याद्वादवारिधि, वादीगजकेसरी, न्यायवाचस्पति आदि। श्री गोपालदासजी ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत जैनमित्र नामक पाक्षिक पत्रिका से की, जो आज भी भारत के सूरत नामक शहर से प्रकाशित होती है। पं. गोपालदासजी ने जैनदर्शन के सैद्धांतिक विषयों को समाहित करते हुए अनेक रचनायें लिखीं, इनमें भी उन्होंने अनेक सैद्धांतिक विषयों का समावेश अत्यन्त, सहज, सरल शैली में किया। उनकी प्रमुख पुस्तकों में श्री जैन सिद्धान्त प्रवेशिका और श्री जैन सिद्धान्त दर्पण हैं। आपने बहुचर्चित सुशीला उपन्यास भी तत्कालीन नवयुवकों में चेतना जागृत करने के उद्देश्य से लिखा था, जो कि धर्म विमुख हो रहे थे। इनके अलावा भी आपके द्वारा लिखित कुछ लेख हैं। जैसे- जैन जागरफी, जैन सिद्धांत सार्वधर्म, उन्नति, आत्महित (भाषण) सृष्टिकर्तृत्वमीमांसा आदि । उनकी सर्वतोमुखी सफलता का मूलश्रेय निःस्वार्थ सेवा भावना को ही जाता है। उन्होंने मुरैना स्थित संस्कृत विद्यालय के जरूरतमन्द छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदानकर समाजसेवा के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया। उन्होंने कभी भी अपने लौकिक स्वार्थ के लिए धार्मिक कार्य नहीं किये । धार्मिक दृष्टि से भी आप उज्ज्वल चारित्र के धारक थे, पंचाणुव्रतों का पालन दृढ़ता से करते थे।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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