________________
ज्ञान विज्ञान भाग - १
१८
उन्हें तारण तरण कहते हैं। सच्चे गुरु काष्ठ की नौका की तरह होते हैं और कुगुरु पत्थर की नौका की तरह होते हैं इसलिये विवेक पूर्वक सच्चे गुरु की शरण में जाना चाहिये । कहा भी है - ' पानी पिओ छानकर, गुरु बनाओ जानकर' गुरु का जीवन में बहुत महत्व है, बिना गुरु के ज्ञान नहीं होता है, श्री जिन तारण स्वामी जी ने कहा है -
जो बिन सुने सयानो होय | तो गुरु सेवा करे न कोय ॥
धर्म को नमस्कार
अर्थ
धम्मु जु उत्तउ जिनवरहिं, अर्थ तिअर्थह जोउ ।
भय विनास भवुजु मुनहु, ममल न्यान परलोउ ॥
जिनेन्द्र भगवान ने कहा है कि प्रयोजनीय तिअर्थ अर्थात् रत्नत्रय स्वरूप को संजोओ यही धर्म है। जो भव्य जीव तिअर्थ का मनन और अनुभव करते हैं उनके भय विनश जाते हैं और भविष्य में उन्हें ममल ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है।
विशेष जानने योग्य -
धर्म को नमस्कार संबंधी यह गाथा श्री ममलपाहुड़ जी ग्रन्थ के धर्मदिप्ति नामक पाँचवें फूलना की पहली गाथा है। इसमें धर्म का स्वरूप बतलाया है। जिनेन्द्र भगवान की दिव्य देशना है कि तिअर्थमयी रत्नत्रय स्वरूप को संजोना ही धर्म है । तिअर्थ अर्थात् उत्पन्न अर्थ, हितकार अर्थ और सहकार अर्थ यह तीनों अर्थ क्रमशः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के सूचक हैं। अभिप्राय यह है कि रत्नत्रय की उपलब्धि होना ही धर्म है। रत्नत्रय आत्मा का स्वभाव है। आत्मा को देखना जानना पहिचानना और अनुभव करना धर्म है जो भव्य जीव रत्नत्रय स्वरूप आत्मा का चिंतन अनुभवन तथा साधना-आराधना करते हैं उनके भय विनश जाते हैं। वे जीव उत्तरोत्तर पंचम ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान को प्राप्त करते हैं। धर्म की शरण से ही जीव, आत्मा से परमात्मा होता है। संसार में धर्म ही एकमात्र शरण लेने योग्य है। इसी से जीवन सुख-शांति - आनन्दमय बनता है ।
अभ्यास के प्रश्न
प्रश्न १ - शुद्धात्म देव से क्या अभिप्राय है ?
प्रश्न २ - गुरु का क्या स्वरूप है ?
प्रश्न ३ - धर्म का क्या स्वरूप है ? प्रश्न ४ तारण तरण किसे कहते हैं ? प्रश्न ५ - तीन रत्नत्रय कौन से हैं ?
-