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धर्म का स्वरूप
मठ में रहो तुंचन करो, पढ़ लो बहुत पीछी धरो। पर धर्म किंचित् नहीं होगा, और न भव से तरो | सब राग द्वेष विकल्प तज, ध्रुव की करो पहिचान है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ ८ ॥ निज को स्वयं निज जान लो, पर को पराया मान लो। यह भेदज्ञान जहान में, निज धर्म है पहिचान लो । इससे प्रगटता आत्मा में, अचल के वलज्ञान है । सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥ ९ ॥ है धर्म वस्तु स्वभाव सच्चा, जिन प्रभु ने यह कहा। हर द्रव्य अपने स्व चतुष्टय में, सदा ही बस रहा ॥ आतम सदा ज्योतिर्मयी, परिपूर्ण सिद्ध समान है । सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ।।१०॥ आनंद मय रहना सदा, बस यही सच्चा धर्म है। इस धर्म शुद्ध स्वभाव से, निर्जरित हों सब कर्म हैं । रत रहो ब्रह्मानंद में, पाओ परम निर्वाण है | सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥११॥
जयमाल वीतरागता धर्म है, सब शास्त्रों का सार । लीन रहो निज में स्वयं, समझाते गुरू तार || १|| सत्य धर्म शिव पंथ है, निर्विकल्प निज भान । भेद ज्ञान कर जान लो, चेतन तत्त्व महान || २ || कथनी करनी एक हो, तभी मिले शिव धाम | संयम तप मय हो सदा, ज्ञायक आतम राम ॥ ३॥ धर्म - धर्म कहते सभी, करते रहते कर्म । अपने को जाने बिना, होता कभी न धर्म ॥ ४ ॥ निज पर की पहिचान कर, धर लो आतम ध्यान। इसी धर्म पथ पर चलो, पाओ पद निर्वाण || ५ ।।
धर्म आत्मा का शुद्ध स्वभाव, वस्तु स्वभाव है। धर्म किसी शुभ-अशुभ क्रिया काण्ड में नहीं होता। शुभ - अशुभ पुण्य-पापबंध का कारण हैं। धर्म तो निर्विकल्प शुद्धात्मानुभूति है, यही सत्यधर्म है जो आत्मा के समस्त दु:खों का अभाव कर | परमात्म पद प्राप्त कराने वाला है। ऐसा महान सत्य धर्म आत्मानुभूति में सदा जयवंत हो।