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देव वंदना
अरिहंत सम निज आत्मा, जहां योग की निस्पंदना। चेतनमयी सत देव की, शत-शत करूं मैं वन्दना ॥ ७ ॥ जग मांहि सच्चे देव को तो, कोई विरले जानते । जो भेद ज्ञानी हैं वही, निज रूप को पहिचानते ॥ सिद्धों सदृश निज आत्मा, जहां कर्म का है संग ना। चेतनमयी सत देव की, शत-शत करूं मैं वन्दना ॥ ८ ॥ सत देव के शुभ नाम पर, जो अदेवों को पूजते । वे मूढ़ रवि का उजाला तज, अंधेरे से जूझते ॥ वह धर्म विह्वल बंधी बेड़ी, कह रही थी चन्दना । चेतनमयी सत देव की, शत-शत करूं मैं वन्दना ॥ ९॥ जग जीव लौकिक स्वार्थ वश, तो कुदेवों को मानते। अज्ञान भ्रम को बढ़ाते, चलनी से पानी छानते ॥ जग जीव खुद के साथ ही, इस विधि करें प्रवंचना। चेतनमयी सतदेव की, शत-शत करूं मैं वन्दना ॥१०॥ सद्गुरू तारण-तरण कहते, जाग जाओ तुम स्वयं । शुद्धात्मा को जानकर, सब मेट दो अज्ञान भ्रम || सत देव ब्रह्मानंद मय, कर दे जगत की भंजना। चेतनमयी सतदेव की, शत-शत करूं मैं वन्दना ॥११॥
जयमाल निज चैतन्य स्वरूप में, पर का नहीं प्रवेश । चिन्मय सत्ता का धनी, है सच्चा परमेश || १ || अरस अरूपी है सदा, शुद्धातम ध्रुव धाम | निश्चय आतम देव को, शत-शत करूं प्रणाम || २ || अरिहन्त सिद्ध व्यवहार से, जानो सच्चे देव । निश्चय सच्चा देव है, शुद्धातम स्वयमेव ।। ३ ।। वीतराग देवत्व पर, चेतन का अधिकार | सिद्ध स्वरूपी आत्मा, स्वयं समय का सार || ४ || दर्शन ज्ञान अनन्त मय, वीरज सौख्य निधान । पहिचानो निज रूप को, पाओ पद निर्वाण || ५ ।।