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श्री उपदेश शुद्ध सार जी जह पज्जावं दिव, अप्पा समयं च मुक्त न्यानं च ।। पज्जावं परु पिच्छदि, संसारे सरनि दुष्य वीयंमि ॥ ८८ ॥ पज्जाव नहु दिढदि, पर सहाव उप्पत्ति पज्जाव विलयंति । न्यानेन न्यान समयं, विमल सहावेन निव्वुए जंति ॥ ८९ ॥ रागादि उववन्नं, राग सहावेन चौगए भमियं । रागं च विषय जुत्तं, राग विलयंति विमल सहकारं ॥ १० ॥ जनरंजन राग उपत्ति, जन उत्तं जन रंजनानि सद्दिट्टी । पर सुभाव पर समयं, तिक्तंति राग ममल न्यानस्य ॥ ९१ ।। राग सहावं उत्तं, जन रंजन पुन्य भाव संजुत्तं । अनित असत्य सहिओ, राग संजुत्त नरय वासम्मि ॥ ९२ ।। राग सहावं पिच्छदि, अन्यान सहकार श्रुतं बहु भेयं । मिच्छात विषय सहियं, रागं विलयंति न्यान सहकारं ॥ ९३ ॥ राग सहावं उत्तं, अन्यानं तव तवंति संजुत्तं । जनरंजन मूढ सहावं, जन उत्तं राग नरय वासम्मि ॥ ९४ ।। रागं च राग जुत्तं, मिथ्या तव तवेहि संचरनं । कुन्यानं संजुत्तं, राग सहावेन दुग्गए पत्तं ॥ ९५ ॥ रागं च राग सहियं, जनरंजन विकहा भाव संजुत्तं । जिन द्रोही जिन उत्तं, राग सहावेन दुग्गए पत्तं ॥ ९६ ॥ विन्यान न्यान रहियं, राग सहावेन पज्जाव पर दिखै । न्यान सहावं विरयं, जनरंजन राग नरय वासम्मि ॥ ९७ ॥ रागं असुद्ध दिट्ठी, संसय सहकार अंतरं न्यानं । संक सहाव न विरयं, न्यानं आवरन चउ गए भमनं ॥ १८ ॥
श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी रागं च लोक मूद, जनरंजन पर्जाव दिट्टि संदर्स । न्यान सहाव न पिच्छं, विभ्रम संजुत्त दुग्गए सहियं ॥ ९९ ॥ रागं च भाव जुत्तं, पर पर्जाव पुरुषस्य स्त्री संदिस्टं । न्यान विन्यान विमुक्तं, न्यान आवरन सु सहिय मूढं च ॥ १०० ।। रागं च राग जुत्तं, स्त्री पर्जाव पुरुष मल सहियं । अन्यान न्यान मूढा, संसय सहिय नरय वासम्मि ॥ १०१ ।। जनरंजन स दिट्ठी, जन उत्तं राग सहिय अन्यानी । लाज भय गारव सहियं, राग संजुत्त भ्रमन वीयम्मि ॥ १०२ ।। रागं च सहिय सल्यं, दुबुहि उववंन मिच्छ परिनामं । जनरंजन जन उत्तं, जिनद्रोही निगोय वासम्मि ॥ १०३ ॥ रागं च भाव उत्तं, न्यानं आवरन रंजनं लोयं । प्रपंच विभ्रम सहियं, विमल सहावेन राग मुक्कं च ॥ १०४ ॥ रागं संसार सहावं, जन उत्तं लोक मूढ़ सुपएसं । जन रंजन लोक सहावं, न्यान सहावेन राग विलयंति ॥ १०५ ॥ रागं उवन्न भावं, रागं संसार सरनि सभावं । पर्जाव दिट्टि दिट्ठ, विमल सहावेन राग संषिपनं ॥ १०६ ॥ जन उत्तं उत्त दिटुं, जामन मुंचनं च सरनि संसारे । मूढ लोय स सहावं, न्यान विन्यान राग विलयंति ॥ १०७ ॥ पाषिक राग स उत्तं, संसारे पषि राग सभावं । संसार विद्धि सहियं, दंसन विमलं च राग गलियं च ॥ १०८ ।। सरीर राग जुत्तं, सहकारं रितियंति अन्यान अन्मोयं । मिच्छात सल्य सहियं, अनुमोये निगोय वासम्मि ॥ १०९ ।।