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________________ श्री छयस्थवाणी जी एकादश अधिकार स्तुति- जिन साह, जिन वाह, जिन उत्पन्न वाह, जिन हिययार वाह, जिन उत्पन्न हिययार वाह, जिन हिय उत्पन्न वाह, जिन साह वाह, जिन उत्पन्न साह वाह, जिन आयरन वाह, जिन उत्पन्न आराध्य वाह, जिन उत्पन्न आलाप वाह, जिन दिस्टि वाह, जिन उत्पन्न दिस्टि वाह, जिन सहज वाह, जिन उत्पन्न सहज वाह, जिन प्रमान वाह, जिन उत्पन्न प्रमान वाह, जिन अषय वाह, जिन उत्पन्न अषय वाह, जिन अनंतानंत प्रवेस वाह, जिन अल्प वाह, जिन उत्पन्न अल्प वाह, जिन सुल्प वाह, जिन उत्पन्न सुल्प वाह, जिन अथह वाह, जिन उत्पन्न अथह वाह, जिन अगम वाह, जिन उत्पन्न अनंत अगम वाह, जिन दिप्ति वाह, जिन उत्पन्न अनंतानंत दिप्ति वाह, जिन दिस्टि वाह, जिन उत्पन्न अनंत दिस्टि वाह ॥१॥ चौथे जो उत्पन्न जैसो ऐसो होई, साह होई, वाह होई, वर होई, वरयाई होई, संवर होई, संवराई होई, तप होई, तेज होई, लब्धि होई, अलब्धि होई, नन्द होई, आनन्द होई, रंज होई, रमन होई, दया होई, दयालु होई, अन्मोद होई, प्रिये होई, प्रवेस होई, प्रसाद होई ॥२॥ उत्पन्न त्रिक-समै साह, उत्पन्न हितकार सहकार. उत्पन्न त्रिक-समै साह, उत्पन्न आयरन आराधि आलाप धुव ॥ ३॥ दूसरी त्रिक - उत्पन्न दर्स त्रिक, समै साह, दर्सन न्यान चरन । उत्पन्न भय विलय त्रिक- भय सल्य संक विलयं समै साह उत्पन्न उक्त त्रिक-समै साह, उत्पन्न केवल सर्व केवल उत्सर्ग केवल । उत्पन्न उत्पन्न भुक्त चतुस्टै, भुक्त उत्पन्न परमिस्टि तस्य उक्त चतुस्टै। उत्पन्न उक्त साह, मोरी समै समै समै, उत्पन्न समै, हिययार समै, सहयार समै, मोरी समय पंच त्रिक पंच अमृत सुभाव त्रिलोकनाथ अनंत प्रवेसी ॥ ४ ॥ श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी छद्मस्थ बुलाऊ आयौ, तुम चलहु हमारी समै निपजवे है, हमारो तिलकु बहत्तर को है, सो आगे आर्बल अनंत हई, उत्पन्न अनंत है। जै जै जै, जै जै जै, जै जै जै, जै एक नमोऽस्तु कियो । जै आऊ, जै आऊ, जै लियो, जै लियौ. जै जगत्रहि दियो, जै सुल्प, जै सुल्प, सु दिप्ति प्रवेस, सुल्प प्रवेस गुप्तार जानी, आयरन जानी, गुप्तार जानी, आराधि जानी, आलाप सुर्य, जो जैसे सो तैसे, जो अर्ध कोड है, गुप्तार जानी, आलाप सुर्य, जो तूं भयो सो तुव पास, जो तुव आस, जो ते लियौ सो जगत्रहि दियो। जु जैसो है सुतैसो है, हमारे जैसो है, जैसो तुव तैसों हौं, जो मोरे सो तोरे, जो तोरे सो मोरे, धुव जय जय, लेहुरे लेहु जय उत्पन्न लेहु, साह साह उत्पन्न जै जै जै, त्रिलोकनाथ गणधर लेहु सुभाव उत्पन्न प्रवेस, लेहु लेह लेह अपनो सुभाव, अपनो प्रवेस, उत्पन्न साह, लेहु लेहु लेहु, त्रिलोकनाथ अनंत प्रवेसी। पाछै भयौ सु विली, आगे अनंतानंत प्रवेस हुई है। अनंत समै अब तो कहो अनंत प्रवेस कै लेह रुइया जिन कहहिं थाती लेहु, कमलावती रुझ्या जिन कहहिं समै की थाती लेहु । तुम पायौ, सो त्रिलोक पायौ, जैसे लेहु तैसे देहु, जैसे लियौ तेसे दियौ, जु जैसे लियौ सु तैसे दियो, जो मोरी आस सो मोहि पास ॥ ५ ॥ बहुरि आये रे ! उत्पन्न समै बुलाये, जै जै अनंत जै बहुरि लेहु रे सर्व लेहु लेहु ॥ ६॥ कौन सुभाव हौं देत, पै लेहु रे लेहु, अब तो परिनाम पहिउ धुव अब लेह, अब जु जहां ते सो तहां ते लेहु, जु जहां ते सु तहां ते निकलउ एकेन्दिय इत्यादि निकलि निकलि आये। अर्क उत्पन्न उदै प्रवेस, उत्पन्न धुव अर्थ, अर्क समय समय अस्थाप आयरन प्रवेस, बेसक प्रसाद उत्पन्न सुभाउ, बेसक सर्वार्थ सुर्य प्रवेस अनंत सौष्य सतसई तीर्थकर साथ ॥ ७॥ (४५१)
SR No.009713
Book TitleAdhyatma Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
PublisherTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publication Year
Total Pages469
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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