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________________ भूमिका भूमिका आचार्य श्री जिन तारण स्वामी का जन्म मिति अगहन सुदी सप्तमी विक्रम संवत् १५०५ में कटनी के निकट पुष्पावती नगरी में हुआ था, जो आज बिलहरी के नाम से जानी जाती है। आपके पिताजी का नाम श्री गढ़ाशाह जी और माताजी का नाम श्री वीरश्री देवी था। पूर्व के उत्कृष्ट शुभ संस्कार आपके साथ में आये थे अतः बचपन से ही आश्चर्य में डाल देने वाली घटनायें घटने लगीं। उसी क्रम में आपके माता - पिता पाँच वर्ष की बाल्यावस्था में ही आपको लेकर सेमरखेडी आ गये और तारण स्वामी माता - पिता सहित मामा श्री लक्ष्मण सिंघई के यहाँ रहने लगे। 'बाल्यकालावति प्राई' बाल्यकाल से ही आप अत्यंत प्रज्ञावान थे। 'मिध्या चिली वर्ष म्यारह' श्री छास्थवाणी जी ग्रन्थ के इस सूत्रानुसार श्री तारण स्वामी को ग्यारह वर्ष की अवस्था में सम्यग्दर्शन हो गया था। थोड़े ही समय में आपने जिनशासन के गंभीर रहस्यों को जान लिया तथा तदनुरूप ज्ञान वैराग्यमय जीवन बनाते हुए आत्म कल्याण के लक्ष्य से आत्म साधना में रत हो गये । संसार शरीर भोगों से बढ़ती हुई विरागता और मुक्ति पाने की प्रबल भावना ने आत्मबल इतना बढ़ाया कि मां की ममता भी संसार के बंधन में नहीं बांध सकी और २१ वर्ष की किशोरावस्था में आपने अखण्ड बाल ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करके अपने शुद्धात्म स्वरूप की साधना में तल्लीन हो गए । सहज और प्रबल वैराग्य सहित मात्र ज्ञान ध्यान ही आपका कार्य था। शुद्ध स्वभाव की साधना की भावनाओं से ओतप्रोत श्री जिन तारण स्वामी सेमरखेड़ी के निर्जन वन की गुफाओं में अपनी साधना में लीन रहते थे। वीतराग स्वभाव की साधना से दिनों दिन बीतरागता बढ़ती गई और ३० वर्ष की उम्र में सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमा की दीक्षा ग्रहण की। श्री तारण स्वामी का जीवन निश्चय - व्यवहार से समन्वित था, उनकी कथनी करनी एक थी। इस उम्र तक उन्होंने आगम और अध्यात्म ज्ञान के उपार्जन के साथ-साथ संयम की साधना में वैराग्यपूर्ण द्रढ़ता जाग्रत कर ली थी। इस बीच उन्होंने देव, गुरू, धर्म के नाम पर चल रहे आडम्बर और जड़वाद को भी समझ लिया था। उन्हें श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी उसमें मार्ग विरुद्ध क्रियाकाण्ड की भी प्रतीति हुई, अत:उन्होंने ऐसे मार्ग पर चलने का निर्णय लिया जिस पर चलकर धर्म के नाम पर होने वाले क्रियाकाण्ड की अवधार्थता को समाज हृदयंगम कर सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये उन्होंने सत्य धर्म शुद्ध अध्यात्म की साधना करने और जगत के जीवों को भी सत्य धर्म के स्वरूप को बताने का संकल्प किया | धर्म की यथार्थ साधना से तथा उनकी वीतरागता की देशना से जीवों में आत्म कल्याण की भावना जागी, सच्चे और झूठे का निर्णय करने का विबेक प्रगट हुआ। परन्तु उस समय क्रियाकांडों को ही सर्वस्व माननेवाले आत्म धर्म से अपरिचित भट्टारक, पांडे, पंडितों को यह सत्यता का प्रकाश सहन नहीं हुआ और योजना बद्ध ढंग से तारण स्वामी को जहर दिया गया, बेतवा नदी में डुबाया गया परन्तु वे अपने ममल स्वभाव की साधना में इतने तन्मय हो गये थे कि इन घटनाओं का उनके ऊपर प्रभाव नहीं हुआ बल्कि स्वभाव साधना द्वारा मुक्ति मार्ग पर आगे बढ़ने के लिये अधिक प्रबलता से आत्म शक्ति जाग गई तथा साधना में दृढता पूर्वक आगे बढ़ने लगे | आत्म चिंतन, मनन, ध्यान आदि में रत रहते हुए आपने जाति-पांति से परे मनुष्य मात्र को धर्म का यथार्थ स्वरूप बताया जिससे अनेकों आत्माओं ने कल्याण का मार्ग ग्रहण किया । अनादि कालीन संसार के जन्म-मरण आदि दुःखों से मुक्त होने और आनन्द परमानन्दमयी परम पद प्राप्त करने की उत्कृष्ट भावना से ६० वर्ष की आयु में मिति माघ सुदी पंचमी (बसन्त पंचमी) विक्रम संवत् १५६५ में आपने निर्गन्ध वीतरागी साधु पद धारण किया । पश्चात् १५१ मण्डलों के आचार्य होने से मण्डलाचार्य पद से अलंकृत हुए। आचार्य श्री जिन तारण स्वामी सोलहवीं शताब्दी में हुए महान अध्यात्मवादी बीतरागी संत थे। वे अपने ममल स्वभाव की साधना में ऐसे लीन हुए कि संसार शरीरादि से मोह टूट गया और चार-चार दिन तक आत्म समाधि में लीन रहने लगे। उन्होंने अपने ज्ञान की किरणों से समस्त विश्व को आलोकित किया। उनके ज्ञान के प्रकाश में लाखों जीवों ने आत्म कल्याण का मार्ग अपनाया। आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज मुनि पद पर ६ वर्ष ५माह १५ दिन रहे । इस प्रकार उनकी पूर्ण आयु ६६ वर्ष ५ माह १५ दिन की थी। अंत में श्री निसई जी क्षेत्र (मल्हारगढ़) के बन में विक्रम संवत् १५७२ मिति ज्येष्ठ वदी ६ को समाधि धारण कर सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुए।
SR No.009713
Book TitleAdhyatma Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
PublisherTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publication Year
Total Pages469
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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