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________________ श्री चौबीस ठाणा जी निरूह तागा स्वरूपी । तागा मुक्त । जदि दात्र लष्य तदि पात्र तागा मुक्ति सुभाव प्राप्तं भवति । तदि विसेष-जिन उक्त नीच सुभाव इतर सुभाव जिन उक्त लोपनं ॥ नंद तागा पर्जाव मुक्त रमन तागा। मुक्त न्यान आहार भेषज अनंत विसेष तागा ग्रहन मुक्तं न भवतु । नीच सुभाव नीच विसेष रमन जिन उक्त लोपनं करोति । नीच पर्जाव रमन विषय रमन सहकार। जिन उक्त, जिन वयन, जिन दर्स, जिन लष्य, जिन अलष्य लष्य, जिन सुभाव सूष्यम । नीच सुभाव भयभीत नीच इतर तेन्द्रिय सहकार गारव सुभाव नीच सहकार जिन उक्त लोपनं करोति, तदि नीच निगोद, इतर निगोद पतनं करोति, अनंत संसारिनो जीवा। जेन केनापि तागा मिलन विषय स्वरूप, विषय मन, विषय वचन, विषय क्रांति, विषय सुभाव रमन तागा मिले और पर्जाव सैनी असैनी सहन अनंत पर्जाव रूव ग्रहन सुभाव निधि रंज स्यन, मनि, सुवर्न, मुक्ता, मनि विसेष । पर्जाव दिस्टि न मिलै, अन्मोद आनंद न्यान अन्मोद, एक समय पर्जाव दिस्टि - विनंद भवति । नीच सुभाव जिन वयन लोपन करोति । नीच पर्जाव सुभावेन न्यान अन्मोद विनंद समय मात्रेन नीच इतर सहकार, नीच इतर पर्जाव लब्धिं भवतु । परिभ्रमनं नीच इतर निगोद तत्क्षण भवतु॥ श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी तृतीय अध्याय विकलत्रय सुभाव विसेष निरूपन - जदि सुभावेन जिन उक्त । जिन वयन । जिन दर्स। जिन सहकार। जिन समय । जिन परिनै । जिन प्रमान । जिन अभ्यर । जिन सुर । सुर्य रमन । जिन विन्यान । जिन पद । जिन अर्थ । जिन तिअर्थ । जिन समय अर्थ । जिन समय सहकार अर्थ । जिन मिलन। जिन कमल। जिन रमन। जिन रंज। जिन नंद । जिन आनंद । जिन चेयानंद। जिन सहजानंद । जिन परमानंद। जिन सदर्थ । जिन लंक्रित । जिन औकास । जिन इच्छ। जिन पिच्छ। जिन गम्य। जिन अगम्य। जिन चेय। जिन वेय। जिन पेष्य। जिन सिष्य। जिन धरन। जिन रहन । जिन ठान । जिन ढलन। जिन दिस्टि। जिन इस्टि। जिन रस्टि। जिन रिस्टि। जिन समय इस्टि। जिन सह इस्टि। जिन उत्पन्न इस्टि । जिन समय इस्टि । जिन सहकार इस्टि । जिन औकास इस्टि। जिन अन्मोद इस्टि। जिन षिपक इस्टि। जिन सर। जिन सब्द सर। जिन असब्द सर। जिन गुपित सर। जिन कमल सर। जिन लष्य । जिन अलष्य । जिन दर्स इस्टि। जिन उत्पन्न दर्स। जिन गुन । जिन मूल गुन संवेग इत्यादि। जिन व्रत अहिंसा इत्यादि। जिन तव अनसन इत्यादि। जिन दर्सन पडिमा इत्यादि। जिन दान न्यान दान इत्यादि। जिन दर्स। जिन न्यान । जिन चरन । जिन उत्पन्न । जिन उत्पन्न हितकार । जिन उत्पन्न सहकार । जिन न्यान विन्यान जिन पद विंद। जिन सिद्ध गुन । जिन दर्स लष्य गुन । जिन सुर्य लब्धि । जिन कारन सोलह । जिन सोलही। उत्पन्न हितकार सहकार षिपक । जान इस्ट सोलही। उत्पन्न सुयं लब्धि । जिन इस्टि परमिस्टी। ॥ इति नित्य, इतर निगोद सुभाव निरूपनं ॥ (इति स्थावर काय, पंच स्थावर तथा नीच - इतर निगोद सुभाव निरूपन करने वाला द्वितीय अध्याय समाप्तम्) (१४६)
SR No.009713
Book TitleAdhyatma Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
PublisherTaran Taran Jain Tirthkshetra Nisai
Publication Year
Total Pages469
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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