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श्री त्रिभंगी सार जी
आश्रव-बन्ध के सम्बन्ध में विशेष
(१) गति - आयु बंध होने पर फिर वह गति टूटती नहीं, उस गति में जाना ही पड़ता है। हाँ गति बन्ध होने के पश्चात् शुभाश्रव के द्वारा उस गति के दुःख भोग कम हो जाते हैं, उसकी अवधि कम हो जाती है और विशेष शुभाश्रव के योग से सुख साता की सामग्री का योग मिलने के साथ-साथ अल्पतम आयु उस गति की रह जाती है। यदि कदाचित् गति बन्ध होने के पश्चात् अशुभाश्रव किया जाय तो दुःखों के साथ-साथ वहाँ की आयु की अवधि भी बढ़ जाती है।
(२) रौद्र भावों रूप सरल भावों से पुण्य, तप, त्याग से प्राप्ति होती है।
से नरकगति, आर्तध्यान से तिर्यंचगति, धर्म मनुष्य गति तथा व्रत, नियम, शील, संयम, दान, देवगति तथा आत्म ध्यान से पंचम गति मोक्ष की
(३) रौद्र भावों तथा आर्त ध्यान में कृष्ण, नील, कापोत यह अशुभ लेश्यायें तथा धर्म रूप सरल भावों में व व्रतादि उत्तम साधनाओं में पीत, पद्म, शुक्ल यह शुभ लेश्यायें रहती हैं; जबकि आत्मध्यान की प्रखरता होने पर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से सयोग केवली तेरहवें गुणस्थान पर्यंत मात्र एक शुक्ल लेश्या ही रहती है। (लेश्याओं का विशेष भेद गुणस्थानों के वर्णन से यथावत् जानना चाहिये )
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श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी
(४) नित्य निगोद, इतर निगोद, पंच स्थावर काय तथा दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय पर्यन्त के समस्त जीव तिर्यंचगति वाले जीव जानना ।
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(५) श्री त्रिभंगीसार जी ग्रंथ में आचार्य श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने उन १०८ परिणाम भेद का वर्णन किया है - जिन परिणामों के प्रवाह में रहता हुआ यह जीव समरंभ, समारंभ, आरंभ से मन, वचन, काय द्वारा कृत, कारित, अनुमोदना पूर्वक क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कषायों की प्रेरणा के कारण (३ x ३ x ३ x ४ = १०८) एक सौ आठ भेद से निरंतर कर्माश्रव किया करता है । इन भेदों को प्रथम अध्याय में बताकर दूसरे अध्याय में उन १०८ परिणामों के भेद बताये हैं जिन आत्मचिंतन रूप भावों द्वारा जीव उन आश्रव भावों का निरोध कर सके।
६० वर्ष की आयु के त्रिभाग में गति बंध होने का अवसर ८ बार आता है; यदि उन अवसरों में गति बंध न हो तो नवमीं बार अन्त समय में अन्तर्मुहूर्त पहले नियम से गति बंध होता ही है।
ऐसा जानकर विवेकवान आत्म हितैषी मानव का परम कर्तव्य है कि हर समय अपने अन्तर भावों की संभाल रखता हुआ अशुभाश्रव से सर्वथा बचा रहकर शुभाश्रव को भी हेय जानता हुआ, आत्मचिंतन के द्वारा संवर रूप रहे, तभी अपनी आत्मा चारों गति के भ्रमण से मुक्त हो सकेगी; अन्यथा शुभाशुभ आश्रव करने के कारण यह जीव अनादि काल