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श्री उपदेश शुद्ध सार जी संसार मंत्र तंत्रं, टोटक सुभाव टेक नंताई । न्यानी विमुक्त भावं, न्यान सहावेन संक रहियं च ॥ २४२ ॥ दर्सन मोहंध भावं, संसार सरनि धरंति सभावं । जिन वयन नहु दिद्वं, अनंत संसार दुष्य वीयम्मि ॥ २४३ ।। संसार भाव उवलष्य, लाज भय गारवेन सभावं । जिन उत्तं नहु लष्यं, संसारे सरनि भावना होइ ॥ २४४ ॥ संसार सरनि सोधं, अभावं भाव सरनि सुविसुद्धं । जिन समय नहु पिच्छइ, दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं ॥ २४५ ॥ सरीरं विरयंतो, सरीर भाव असुह मुक्कं च । न्यानेन न्यान सुद्धं, दर्सन मोहंध सरीर सहकारं ॥ २४६ ॥ अनित असत्य सहियं, असुचि अमेय भाव अनंतानं । तं नितं जानंतो, दर्सन मोहंध अनिस्ट रूवेन ॥ २४७ ॥ सरीर भाव सहिओ, जिन उत्तं सुद्ध वयन नहु पिच्छं । मिच्छा कुन्यान सहिओ, दर्सन मोहंध दुग्गए पत्तं ॥ २४८ ॥ भोगं अनिस्ट रूवं, अनिस्ट भावेन सरनि संसारे । अनित भाव स भोग, दर्सन मोहंध अनित भोगं च ॥ २४९ ॥ भोगं संसार सुभावं, उवभोगं अभाव भाव उवलष्यं । अनिस्ट भोग स उत्तं, दर्सन मोहंध सुस्ट भोगं च ॥ २५० ।। भोग भोग सुभावं, विकहा विसन विषय भाव उवभोग । आलापं असुद्ध भावं, दर्सन मोहंध अनित भोगं च ॥ २५१ ॥ भोगं नंत विसेषं, अन्यानं तव वय किरिय विकह संजुत्तं । वयनं न सुद्ध वयनं, अनिस्ट रूवेन अंध अंधानि ॥ २५२ ॥
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श्री तारण तरण अध्यात्मवाणी जी अंधं अंध सुभाव, दर्सन मोहंध दुष्य वीयम्मि । दुष्यं अनंत नंतं, संसारे नरय निगोय वासम्मि ॥ २५३ ।। उत्पन्नं मन चवलं, अनंत विसेषेन पर्जाव संदिहें । चेयन नंद सरूवं, अप्प सहावेन कम्म षिपिऊनं ॥ २५४ ।। मन चवलं उववन्नं, संसार सुभाव पर्जाव अनुरत्तं । अप्प सरूवं पिच्छदि, पर्जय विरतस्य कम्म षिपिऊनं ॥ २५५ ।। पर्जय सहाव उत्तं, सरीर संस्कार भाव उववन्नं । क्रित कारित अनुमतयं, पज्जय विवरिउ कम्म विरयंति ॥ २५६ ॥ इंदी सुभाव दिटुं, अनिस्ट संजोय सरनि संसारे । जिन वयनं पिच्छंतो, अतींदी भाव इंदि विरयंति ॥ २५७ ॥ जं इंदी च सहावं, तं जानेहि सयल मोहंधं । जिन उवएस लहतो, अतींदी सहकार कम्म विरयंति ॥ २५८ ।। दिस्टी दिस्टतु इंदी, दिस्टी संसार सरनि सभावं । जिन वयनं पिच्छंतो, दिस्टि अदिस्टि कम्म विरयंतु ॥ २५९ ॥ दिट्ठी प्रपंच भावं, दिट्ठी उववन्न पर्जाव सभावं । जिन सुभाव सहावं, अतींदी दिट्टि कम्म विरयंतो ॥ २६० ।। दिट्ठी विभ्रम रूवं, उत्साह उच्छाह दिट्टि ससहावं । जनरंजन जन उत्तं, अतींदी भाव कम्म विरयंति ॥ २६१ ।। दिट्ठी अनंत रूवं, जनरंजन कल सहाव संदिट्ठी । न्यान सहाव स उत्तं, अप्प सहावेन कम्म विरयंति ॥ २६२ ।। दिट्ठी मन उपपत्ती, दिट्टी दिटेइ अभाव भय उत्तं । न्यान सहाव उवन्न, अप्प सहावेन दुष्य विरयंति ।। २६३ ॥
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