________________
शुभ क्रियाओं को धर्म माने, यही भ्रम अज्ञान है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥६॥ जग तो क्रिया के अंधेरे में, कैद करके धर्म को। भूला स्वयं की चेतना, नित बांधता है कर्म को॥ विपरीत दृष्टि में न होता, कभी निज कल्याण है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥७॥ मठ में रहो लुंचन करो, पढ़ लो बहुत पीछी धरो। पर धर्म किंचित् नहीं होगा, और न भव से तरो॥ सब राग द्वेष विकल्प तज, ध्रुव की करो पहिचान है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥८॥ निज को स्वयं निज जान लो, पर को पराया मान लो। यह भेदज्ञान जहान में, निज धर्म है पहिचान लो॥ इससे प्रगटता आत्मा में, अचल केवलज्ञान है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥९॥ है धर्म वस्तु स्वभाव सच्चा, जिन प्रभु ने यह कहा। हर द्रव्य अपने स्व चतुष्टय में, सदा ही बस रहा । आतम सदा ज्योतिर्मयी, परिपूर्ण सिद्ध समान है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है॥१०॥ आनंद मय रहना सदा, बस यही सच्चा धर्म है। इस धर्म शुद्ध स्वभाव से, निर्जरित हों सब कर्म हैं। रत रहो ब्रह्मानंद में, पाओ परम निर्वाण है। सत धर्म शुद्ध स्वभाव अपना, चेतना गुणवान है ॥११॥
जयमाल वीतरागता धर्म है, सब शास्त्रों का सार । लीन रहो निज में स्वयं, समझाते गुरू तार ||१|| सत्य धर्म शिव पंथ है. निर्विकल्प निज भान। भेद ज्ञान कर जान लो, चेतन तत्व महान ||२| कथनी करनी एक हो, तभी मिले शिव धाम । संयम तप मय हो सदा, ज्ञायक आतम राम ||३|| धर्म - धर्म कहते सभी, करते रहते कर्म । अपने को जाने बिना, होता कभी न धर्म ||४|| निज पर की पहिचान कर,धर लो आतम ध्यान। इसी धर्म पथ पर चलो, पाओ पद निर्वाण ||५||
धर्म आत्मा का शुद्ध स्वभाव, वस्तु स्वभाव है, धर्म किसी शुभ-अशुभ क्रिया काण्ड में
नहीं होता। शुभ - अशुभ क्रियायें पुण्य-पाप बंध की कारण हैं। धर्म तो निर्विकल्पता शुद्धात्मानुभूति है, यही सत्य
धर्म है जो आत्मा के समस्त दु:खों का अभाव कर परमात्म पद प्राप्त कराने वाला
है। ऐसा महान सत्य धर्म अंतर आत्मानुभूति में सदा जयवंत हो।
kakkar
37
38