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________________ २६ वक्रोक्तिजीवितम् ___ अत्रारुणपरिस्पन्दनमन्दीकृतवपुषः शशिनः कामपरिक्षामवृत्तेः कामिनीकपोलफलकस्य च पाण्डुत्वसाम्यसमर्थनादर्थालंकारपरिपोषः शोभातिशयमावहति । वक्ष्यमाणवर्णविन्यासवक्रतालक्षणः शब्दालंकारोऽप्यतितरां रमणीयः। वर्णविन्यासविच्छित्तिविहिता लावण्यगुणसंपदस्त्येव । — यहाँ पर अरुण के सञ्चरण से मन्द कर दी गई प्रभा वाले चन्द्रमा की और काम के कारण परिक्षीण हो गये व्यापार वाजे कामिनी के गण्डस्थल की पाण्डुता की समानता का समर्थन करने से ( उपमा रूप ) अर्थालङ्कार का परिपोषण अत्यधिक शोभा को धारण करता है । ( साथ ही) आगे कही जाने वाली वर्णविन्यासवक्रतारूप ( जिसे अन्य आलङ्कारिकों के आधार पर अनुप्रास अलङ्कार कहा जा सकता है ) शब्दालङ्कार भी अत्यन्त ही रभणीय बन पड़ा है। और वर्णविन्यास की शोभा से उत्पन्न लावण्य गुण की सम्पत्ति तो है ही। ( अतः यहाँ पर गुण शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार सभी का परस्पर स्पर्धा से प्रयोग शब्दार्थ-साहित्य का सूचक है जिससे यह पद्य एक सुन्दर काव्य का उदाहरण बन गया है । ) यथा च लीलाइ कुवलयं कुवल व सीसे समुव्वहंतेण | सेसेण सेसपुरिसाणं पुरिसआरो समुप्पसिओ ॥२०॥ [ लीलया कुवलयं कुवलयमिव शीर्षे समुद्वहता । शेषेण शेषपुरुषाणां पुरुषकारः समुपहसितः ।।] और जैसे ( दूसरा साहित्य ( काव्य ) का उदाहरण ) कुवलय ( नील कमल ) के सदृश कुवलय (पृथ्वी-मण्डल ) को शिर पर बिना किसी श्रम के ही धारण करने वाले शेषनाग ने शेष पुरुषों के पौरुष की अच्छी हंसी उड़ाई है ॥ २० ॥ - अत्राप्रस्तुत प्रशंसोपमालक्षणवाच्यालंकारवैचित्र्यविहिता हेलामात्र विरचितयमकानुप्रासहारिणी समर्पकत्वसुभगा कापि काव्यच्छाया सहृदयहृदयमाह्नादयति । __ यहाँ पर अप्रस्तुतप्रशंसा एवं उपमारूप अर्थालङ्कारों के वैचित्र्य से उत्पन्न, एवं विना परिश्रम के ही विरचित यमक एवं अनुप्रास (रूप शब्दा. लङ्कारों) से चित्ताकर्षक तथा शीघ्र ही अर्थ स्पष्ट हो जाने (समर्पकत्व) के कारण सुन्दर कोई ( अनिर्वचनीय) काव्य की शोभा सहृदयों के हृदयों को
SR No.009709
Book TitleVakrokti Jivitam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRadhyshyam Mishr
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages522
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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