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वक्रोक्तिजीवितम् नहीं धारण करता है । एवं ( चतुर्थ चरण में प्रयुक्त ) 'रविव्यापार' इस शब्द में रवि शब्द के प्रधानरूप से अभिमत होने पर मी समास में उसका गौणभाव नहीं बचाया गया है । जब कि पाठान्तर 'रवेः' भी सम्भव हो सकता था । ( अर्थात् उस स्थान पर रवि का व्यापार शब्द के साथ समास कर देने पर रवेः व्यापारः इति 'रविव्यापारः' यहाँ व्यापार शब्द प्रधान हो जाता है और रवि शब्द गौण, जब कि प्राधान्य रवि का ही अभिप्रेत है। अतः कुन्तक आलोचना करते हैं कि यहाँ समास करने के लिये कवि बाध्य नहीं है कि क्यों 'रवेः व्यापारोऽयम्' ऐसा पाठ कर देने से भी किसी प्रकार छन्दोभङ्ग आदि की बाधा नहीं होती और रबि शब्द प्रधानरूप से उपस्थित हो जाता है । अतः उक्त दोषों के कारण शोभातिशय से शून्य यह श्लोक काव्य नहीं है । यह कुन्तक का मत है । )
ननु वस्तुमात्रस्याप्यलंकारशून्यतया कथं तद्विदाहादकारित्वमिति चेत्तन; यस्मादलंकारेणाप्रस्तुतप्रशंसालक्षणेनान्यापदेशतया स्फुरितमेव कविचेतसि । प्रथमं च प्रतिभाप्रतिभासमानमघटितपाषाणशकलकल्पमणिप्रयमेव वस्तु विदग्धकवि-विरचितवक्रवाक्योपारूढं शाणोल्लीढमणिमनाहरतया तद्विदाबादकारिकाव्यत्वमधिरोहति । तथा वैकस्मिमेव बस्तुन्यवहितानवहितकत्रिद्वितयविरचितं वाक्यद्वयमिदं महदन्तरमावेदयति
प्रश्न-यदि आप शोभातिशय से शून्य वस्तुमात्र को काव्य सज्ञा देने के लिए तैयार नहीं है तो ( अप्रस्तुतप्रशंसा आदि के स्थलों पर) अलङ्कार से शून्य होने पर भी वस्तुमात्र में काव्यमर्मज्ञों का आह्लादकारित्व क्यों होता है ?
उत्तर-ऐसा कहना ठीक नहीं। क्योंकि ( वाक्यरचना के ) अन्य मक्ष्य से युक्त होने के कारण कवि के हृदय में अप्रस्तुतप्रशंसारूप अलङ्कार स्फुरित ही होता ( अर्थात् अप्रस्तुतप्रशंसा आदि अलङ्कारों के स्थलों में कवि जिस वस्तु का वर्णन वाक्य में प्रस्तुत करता है, उस वस्तु का वर्णन करना ही उसका अभीष्ट या लक्ष्य नहीं होता, बल्कि कवि उस वर्णन के माध्यम से प्रतीयमान रूप किसी अन्य के चरित्र का वर्णन प्रस्तुत करता है, और इसी प्रतीयमान ढङ्ग से ही अभिमत वस्तु को प्रस्तुत करने में कवि का चातुर्य होता है जिससे सहृदयों को आनन्द प्राप्त होता है। यदि कनि उस प्रतीयमान वस्तु को ही वाच्यरूप से प्रस्तुत करे तो वह चमत्कारहीन हो जायगी । अतः सिद्ध हमा कि ऐसे स्थलों पर कवि का लक्ष्य प्रतीय