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प्रथमोन्मेषः
तद्भावहेतुभावो हि दृष्टान्ते तदवेदिनः । स्थाप्येते विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवलः ॥ १२ ॥
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दृष्टान्त में उस (अनुमेय वस्तु ) की सत्ता तथा उसके हेतु की स्थापना केबल उस ( हेतु हेतुमद्भाव ) से अपरिचित ( जन ) के लिए की जाती है । किन्तु विद्वानों के लिए तो केवल हेतु ही कहा जाता है । ( उसी से वे सत्ता का अनुमान कर लेते हैं ) ॥ १२ ॥
विदधतीति विपूर्वो दधातिः करोत्यर्थे वर्तते । स च करोत्यर्थोऽत्र न सुस्पष्टसमन्वयः, प्रकाशस्वाभाव्यं न कुर्वन्तीति । प्रकाशस्वाभाव्यशब्दोऽपि चिन्त्य एव । प्रकाशः स्वभावो यस्यासौ प्रकाशस्वभावः, तस्य भाव इति भावप्रत्यये विहिते पूर्वपदस्य वृद्धिः प्राप्नोति । अथ स्वभावस्य भावः स्वभाव्यमित्यत्रापि भावप्रत्ययान्ताद्भावप्रत्ययो न प्रचुरप्रयोगार्हः । तथा च प्रकाशश्चासौ स्वाभाव्यं चेति विशेषणसमासोऽपि न समीचीनः ।
'विदधति' यहाँ पर बि ( उपसर्ग ) पूर्वक दधाति ( धा धातु) करोति ( डुकृञ करणे) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । 'प्रकाशस्वाभाव्य ( स्वयंप्रकाशता ) नहीं करते हैं' इस प्रकार यहाँ वह करोति ( कु धातु) का अर्थ भी सुष्पह ढंग से अन्वित नहीं होता है । स्वयं प्रकाशता नहीं करते हैं, इसमें 'प्र स्वाभाव्य' शब्द भी चिन्त्य ही है । प्रकाश है स्वभाव जिसका ऐसा हुआ प्रकाशस्वभाव । उसका भाव इस अर्थ में भाव प्रत्यय किये जाने पर पूर्व पद की बुद्धि प्राप्त होती है ( जिससे प्राकाशस्वाभाव्य यह रूप शुद्ध होगा प्रकाशस्वाभाव्य नहीं । और यदि स्वभाव का भाव स्वाभाव्य हुआ तो भी यहाँ भाव प्रत्मयान्त ( स्वभाव शब्द ) से ( पुनः ) भाव प्रत्यय अत्यधिक प्रयोग के योग्य नहीं है। और फिर 'प्रकाशश्वासी स्वाभाव्यच' यह विशेषण समास भी ठीक नहीं ।
तृतीये च पादेऽत्यन्ता समर्पक समासभूयस्त्ववैशसं न तद्विदाह्लादकारितामावहति । रविव्यापार इति रवि शब्दस्य प्राधान्येनाभिमतस्य समासे गुणीभावो न विकल्पितः, पाठान्तरस्य ' रवेः ' इति संभवात् ।
तथा ( उक्त श्लोक के ) तृतीय चरण ( गुणाध्यासाभ्यासम्पसन दीक्षागुरुगुण:) में अत्यन्त ही असमर्पक ( अर्थ की सरलता से प्रतीति कराने में बाधक ) समासबहुलरूप कष्ट काव्यतत्वमर्मज्ञों की मानव्यकारिता