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वक्रोक्तिजीवितम्
अलंकार से युक्त की काव्यता होती है ऐसा साम्मुग्ध्य रूप से कुछ काव्य का स्वरूप बताया तो गया है किन्तु अच्छी तरह से उसका स्वरूप नहीं निश्चित किया । अतः किस प्रकार की वस्तु काव्य संज्ञा के योग्य होती है इसका निरूपण करते हैं
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वक्र ( अर्थात् शास्त्रादि में प्रसिद्ध शब्द और अर्थ के उपनिबन्धन से भिन्न ) कविव्यापार से शोभित होने वाले एवम् उस ( काव्यतत्त्व ) की समझने वालों के आनन्ददायक बन्ध अर्थात् वाक्यविन्यास में विशेषरूप से अवस्थित तथा सहित भाव से युक्त शब्द और अर्थ ( दोनों मिलकर ही ) काव्य होते हैं ॥ ७ ॥
शब्दार्थों काव्यं वाचको वाच्यश्चेति द्वौ संमिलितौ काव्यम् । द्वावेकमिति विचित्रैवोक्तिः । तेन यत्केषांचिन्मतं कविकौशलकल्पित - कमनीयतातिशयः शब्द एव केवलं काव्यमिति केषांचिद् वाच्यमेव रचनावैचित्र्यचमत्कारकारि काव्यमिति, पक्षद्वयमपि निरस्तं भवति । तस्माद् द्वयोरपि प्रतितिलमिव तैलं तद्विदाह्लादकारित्वं वर्तते, न पुनरेकस्मिन् । यथा
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यह तो बड़ा
की बारी से
शब्द और अर्थ काव्य होते हैं अर्थात् वाचक और वाच्य दोनों भलीभाँति मिलकर काव्य होते हैं । दो ( मिलकर ) एक होते हैं विचित्र कथन है । इसलिए जो किसी का मत है कि कवि निर्मित कमनीयातिशय से युक्त शब्द ही केवल काव्य होता है यह ( मत ), तथा किसी का यह मत कि रचना की विचित्रता से आनन्द को उत्पन्न करने वाला अर्थ ही काव्य होता है ये दोनों पक्ष खण्डित हो जाते हैं । ( क्योंकि दोनों अलग-अलग नहीं अपितु एकसाथ मिलकर ही काव्य होते हैं ।) अतः ( शब्द और अर्थ ) दोनों में ही प्रत्येक तिल में स्थित तैल की भाँति उस ( काव्यतत्व ) को जानने वालों को आह्लादित करने की क्षमता रहती है न कि एक में । जैसे --
भण तरुणि रमणमन्दिरमानन्दस्यन्दिसुन्दरेन्दुमुखि । यदि सलीलोल्लापिनि गच्छसि तत् किं त्वदीयं मे ॥ ६ ॥ अन रणन्मणिमेखलमविरत शिञ्जानमज्जुमञ्जीरम् । परिसरणमरुणचरणे रणरणकमकारणं कुरुते ॥ १० ॥
( किसी पर-स्त्री को अपने प्रेमी के घर जाती हुई देखकर कोई पुरुष कहता है कि ) हे आनन्दजनक सुन्दर चन्द्रमा के सदृश मुखवाली ! सुन्दर