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प्रथमोन्मेषः । वाच्य रूप ( अर्थात् शब्द एवं अर्थ रूप ) होता है उसका भी विचार किया जाता है। उन ( अलङ्कार एवं अलङ्कार्य ) का सामान्य एवं विशेष लक्षणों के द्वारा स्वरूप-विवेचन किया जाता है कैसे-अधोद्धत्य अर्थात् निकालकर, अलग-अलग स्थापित कर अर्थात् जहाँ ( काव्य में) समुदाय रूप में उन दोनों का अन्तर्भाव होता है उससे अलग करके ( उनका विवेचन किया जाता है)। किस लिए उसका उपाय होसे से । उससे काव्य का परामर्श होता है ( अर्थात् काव्य की व्युत्पत्ति का कारण होने से ), उसका उपाय हुमा तदुपाय, उसका भाव हुआ तदुपायता, उसके द्वारा कारण रूप होने से ( विवेचन किया जाता है) इसलिए इस प्रकार का विवेचन काव्य की व्युत्पत्ति का उपाय बन जाता है और देखा भी जाता है कि समुदाय के अन्तर्गत स्थित असत्यभूत (पदाथों) का भी व्युत्पत्ति के लिए बलग-अलग विवेचन (शास्त्रों में किया जाता है)। जैसे पद के अन्तर्गत स्थित प्रकृति और प्रत्यय का विवेचन (व्याकरणशास्त्र में ) तथा वाक्य के अन्तर्गत स्थित पदों का विवेचन ( मीमांसा शास्त्र में ) पाया जाता है।
(प्रश्न ) यदि इस प्रकार से असत्यभूत भी अपोदार ( अर्थात् बलकार . एवम् अलङ्कार्य का अलग-अलग विवेचन ) उस ( काव्य की व्युत्पत्ति ) का उपाय होने से किया जाता है तो फिर सत्य क्या है ? उसे कहते हैं-'वस्तुतः अलङ्कार युक्त की ही कान्यता होती है। , इसका निष्कृष्ट अर्थ यह हुआ कि सालङ्कार अर्थात् अलङ्करण से युक्त समस्त ( समुदाय की) अवयवहीन होने पर ही काव्यता अर्थात् कवि का कर्मत्व होता है। अतः अलंकृत (शब्द और अर्थ ) ही काव्य होता है यह सिद्ध हुआ न कि काव्य का अलङ्कार से योग होता है ( अर्थात् अलङ्कार से हीन होने पर काव्य की सत्ता ही असम्भव है क्योंकि अलङ्कार को काव्य से अलग किया ही नहीं जा सकता, अतः यह कथन कि काव्य का अलंकार के साथ योग होता है नितान्त अनुचित होगा, क्योंकि यह कथन काव्य और अलंकार को भिन्न-भिन्न सिद्ध करता है । ) ॥ ६ ॥
सालंकारस्य काव्यतेति संमुग्धतया किंचित् काव्यस्वरूपमा सूत्रितम्, निपुणं पुनर्न निश्चितम् । किंलक्षणम् वस्तु काव्यव्यपदेशभाग भवतीत्याह
शब्दार्थों सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि । बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणि ॥७॥ २५० जी०