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प्रथमोन्मेषः
उसका अनुभव, प्रसिद्ध उत्कर्ष वाले उस (चतुर्वर्ग का फलास्वाद) अतिक्रमण करके उसको भी जीतकर अतः उसे निःसार सा बना करके ( चमत्कार को उत्पन्न करता है )।
तदयमभिप्रायः-योऽसौ चतुर्वर्गफलास्वादः प्रकृष्टपुरुषार्थतया सर्वशास्त्रप्रयोजनत्वेन प्रसिद्धः सोऽप्यस्य काव्यामृतचर्वणचमत्कार• कलामात्रस्य न कामपि साम्यकलनां कर्तुमर्हतीति । दुःश्रव दुर्भणदुरधिगमत्वादिदोषदुष्टोऽध्ययनावसर एव दुःसहदुःखदायी शास्त्रसन्दर्भस्तत्कालकल्पितकमनीयचमत्कृतेः काव्यस्य न कथंचिदपि स्पर्धामधिरोहतीत्येतदप्यर्थतोऽभिहितं भवति ।
तो इसका मतलब यह हुआ कि जो यह धर्मादि-चतुर्वर्ग के उपभोग का अनुभव प्रकृष्ट पुरुषार्थ के रूप में समस्त शास्त्रों के प्रयोजन रूप से प्रसिद्ध है, वह भी इस काव्यरूप अभृत के आस्वाद के आनन्द की कलामात्र की किसी भी प्रकार की समता करने के योग्य नहीं है । दुःश्रवत्व ( कर्णकटु ), दुर्भणत्व (उच्चारण में कठिनाई पैदा करने वाले ), दुरधिगमत्व ( बड़ी मुश्किल से समझ में आने वाले ) आदि दोषों से दूषित होने के कारण अव्ययन काल में अत्यन्त ही अंसह्य दुःख को देने वाला शास्त्र-सन्दर्भ ( शास्त्रों के वर्णन ) तत्काल ( अध्ययन करते समय ) ही कमनीय ( रसास्वादजन्य अलौकिक आनन्दरूप ) चमत्कृति की सृष्टि करने वाले काव्य की किसी भी प्रकार स्पर्धा ( समता ) करने में समर्थ नहीं यह बात भी अर्थतः ( स्पष्ट कर दी जाती है) अभिहित होती है । ( जैसा कि कहा भी गया है कि )
कटुकौषधवच्छास्त्रमविद्याव्याधिनाशनम् । आह्वाधमृतवत्काव्यमविवेकगदापहम् ॥७॥
शास्त्र कड़वी दवा की तरह अज्ञान रूप मानसिक रोग ( व्याधि ) का विनाश करने वाला होता है, ( जब कि ) काव्य ( चित्त को) आनन्द देने वाले अमृत के सदृश अज्ञान ( अविवेक ) रूप रोग का विनाश करने वाला होता है ॥ ७ ॥
आयात्यां च तदात्वे च रसनिस्यन्दसुन्दरम् |
येन संपद्यते काव्यं तदिदानी विचार्यते ।। ८॥ इत्यन्तरश्लोकौ ॥ ५॥