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वक्रोक्तिजीवितम्
उसका फलभूत आह्लाद भी कालान्तर में ही होता है इसलिए उस आह्लाद का जनक होने का अध्ययनकालिक कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता । इसलिए केवल भविष्य की कल्पना पर काव्य का अध्ययन किया जाय वह उचित नहीं क्योंकि भविष्य तो अन्धकारमय होता है अतः उससे भिन्न सहृदयों के - हृदय की अनुरूपता से रमणीय तत्काल ( अध्ययन काल ) में ही मनोहर किसी अन्य प्रयोजन को बताने के लिए कहा है
चतुर्वर्गफलास्वादमप्यतिक्रम्य तद्विदांम् । काव्यामृतरसेनान्तचमत्कारो वितन्यते ॥ ५ ॥
( प्रसिद्ध धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष रूप ) चतुर्वर्ग के फल के आस्वाद ( अनुभव ) का भी अतिक्रमण करके, काव्यरूपी अमृत का रस, उस ( काव्यामृतरसास्वाद ) को जानने वालों के हृदय में चमत्कार का विस्तार करता है । ( अर्थात् काव्य के अध्ययन से उत्पन्न रसास्वाद से प्रसिद्ध धर्मादि चतुर्वर्ग के फल का आनन्द भी निम्नकोटि का होता है ) ॥ ५ ॥
चमत्कारो वितन्यते चमत्कृतिर्विस्तार्यते, ह्लादः पुनः पुनः क्रियत इत्यर्थः । केन – काव्यामृतरसेन । काव्यमेवामृतं तस्य रसस्तदास्वादस्तदनुभवस्तेन । क्वेत्यभिदधाति — अन्तश्चेतसि । कस्य — द्विदाम् । तं विदन्ति जानन्तीति तद्विदस्तज्ज्ञास्तेषाम् । कथम् - चतुर्वगफलास्वादमप्यतिक्रम्य । चतुवंर्गस्य धर्मादेः फलं तदुपभोगस्तस्यास्वादस्तदनुभवस्तमपि प्रसिद्धातिशयमतिक्रम्य विजित्य पस्पशप्रायं संपाद्य ।
'चमत्कारी वितन्यते' अर्थात् चमत्कृति ( रसास्वाद रूप अलौकिक आनन्द ) विस्तार किया जाता है, बार-बार, आनन्दानुभूति कराई जाती है, यह अर्थ हुआ । किसके द्वारा, काव्यामृतरस के द्वारा । काव्य ही है अमृत ( जो ), उसका रस उसका आस्वाद अर्थात् उसका अनुभव उसके द्वारा । कहाँ ( चमत्कार का विस्तार होता है ) यह कह सकते हैं, अन्तः अर्थात् हृदय में, किसके ( हृदय में ), तद्विदों के । उस ( काव्यरस ) को जानते हैं जो वे हुए तद्विद्, उसको जानने वाले, उनके ( हृदय में चमत्कार का विस्तार करता है ) कैसे ( चमत्कार को पैदा करता है ) चतुर्वर्ग के फलास्वाद का भी अतिक्रमण करके । चतुर्वर्ग अर्थात् धर्मादि ( धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप पुरुषार्थ ) का फल अर्थात् उसका उपभोग, उसका आस्वाद अर्थात्