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( ४० ) उदात्तमृद्धिमद्वस्तु चरितञ्च महात्मनाम् ।
उपलक्षणतां प्राप्त नेतिपत्तत्वमागतम् ।। . पहले प्रकार के विषय में कुन्तक कहते हैं जिस ऋद्धिमद्वस्तु तुम अलंकार
कहते हो वही तो वर्ण्यशरोर होने के कारण अलंकार्य है। अतः यहाँ स्वात्मनि क्रियाविरोष दोष उपस्थित है और यदि तुम यह कहो कि ऋद्धिमद्वस्तु जिसमें हो वह उदातालंकार है तो काव्य ही अलंकार होने लगेगा। जब कि काव्य ही नहीं बल्कि काव्य के अलंकार होते हैं ऐसी प्रसिद्धि है। अतः यहाँ 'शब्दार्थासाति' रूप दोष विद्यमान है । अतः इस प्रथम प्रकार की अलंकार्यता ही उचित है।
दूसरे भेद के विषय में कुन्तक कहते हैं कि क्या उपलक्षणमात्र प्रति वाले महानुभावों के व्यवहार का प्रस्तुत वाक्यार्य में कोई अन्वय है, या नहीं है। अगर अन्वय है तो वह उसके अंग रूप में आ जायगा, अलहार नहीं बन जायगा जैसे शरीर के हाथ आदि अङ्ग हैं, अलवार नहीं। और यदि उसका प्रस्तुत बाक्यार्थ में कोई अन्वय ही नहीं है तो सत्ता का ही प्रभाव होने पर अलकारता की चर्चा तो बहुत दूर की बात है। अतः दोनों प्रकार का उदात्त अलंकार्य हो है, अलहार नहीं।
५. समाहित अलङ्कार समाहित को भी अलंकार्यता ही कुन्तक को मान्य है-“एवं समाहितस्याप्यलंकार्यत्वमेव न्याय्यम्' न पुनरलंकारभावः ।' समाहित के उन्होंने दो प्रकार बताकर दोनों का खण्डन किया है। पहले प्रकार के रूप में उन्नोंने उद्धट के लक्षण को प्रस्तुत कर उसका खण्डन किया है। खण्डन किस ढंग से किया यह कहना कठिन है। फिर दूसरे प्रकार के उदाहरण रूप में दण्डी के लक्षण का खण्डन प्रस्तुत किया है
'यदपि कैश्चित प्रकारान्तरेण समाहिताख्यमलङ्करणमाख्यातं तस्यापि तथैव भूषणत्वं न विद्यते।'
६. दीपक अलङ्कार कुन्तक ने भामह के दीपकालंकार के लक्षण का खण्डन किया है । उनका कहना है कि प्राचीन भाचार्यों में प्रादिदीपक, मध्यदीपक और अन्तदीपक के इस प्रकार के क्रियापद के ही प्रादि, मध्यम और अन्त में विद्यमान रहने से क्रियापद को ही दीपकालंकार कहा है। इसी बात का कुस्तक कई तर्को द्वारा खण्डन करते हैं। उसे मूल प्रन्य से देखें। उन्हें व किनापद ही दीपक होता है यही स्वीकार