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( ४१ ) करने में विरोध है जैसा कि वे अपने दीपकालंकार के विवेचन के वाद 'मदो जनयति प्रीतिम्' आदि भामह के उदाहरण को प्रस्तुत करने के बाद स्वयं कहते हैं-'क्रियापदमेकमेव दीपकमिति तेषां तात्पर्यम्, अस्माकं पुनः कर्तृपदादि निबन्धनानि दीपकानि बहूनि सम्भवन्तीति ।' . दीपक के लक्षण में वे उद्भट को बल्कि अभियुक्ततर कहते हैं-'प्रस्तुताप्रस्तुतविध्यसामर्थ्यसम्प्राप्तिप्रतीयमानवृत्तिसाम्यमेव. नान्यत् किश्चित् इत्यभियुक्ततरैः प्रतिपादितमेव-'आदिमध्यान्तरविषयाः प्राधान्येतरयोगिनः । अन्तर्गतोपमा धर्मा यत्र तद्दीपकं विदुः ।' और उद्भट के साथ वे सहमति व्यक्त करते हैं कि यदि प्रस्तुत और अप्रस्तुत में प्रतीयमानवृत्ति साम्य नहीं होगा तो दीपक होगा ही नहीं। और उनकी 'अन्तर्गतोपमा धर्म' की विशेषता को समर्थन देते हैं। उनका दीपक का लक्षण है
"औचित्यावहनम्लानं तद्विदाह्लादकारणम् । - अशक्तं धर्ममर्थानां दोपयद् वस्तुदीपकम् ॥" पाण्डुलिपि के अस्पष्ट और खण्डित होने के कारण यह कह सकना कठिन है किस प्रकार उन्होंने उसकी व्याख्या और विभाजनादि किया।
७. उपमा में अन्तर्भूत होने वाले अलङ्कार (क) प्रतिवस्तूपमा कुन्तक प्रतिवस्तूपमा का अन्तर्भाव प्रतीयमानोपमा में करते हैं—“समानवस्तुन्यासोपनिबन्धनं प्रतिवस्तूपमापि न पृथग वक्तव्यतामर्हति पूर्वोदाहरणेनैव समानयोगक्षेमत्वात्" तथा "तदेवं प्रतिवस्तूपमायाः प्रतीयमानोपमायामन्तर्भावोपपत्त्यो सत्याम् ।" (पृ. ३७६ ) .
(ख) उपमेयोपमा-उपमेयोपमा भी उपमा से भिन्न नहीं । वह सामान्य है। क्योंकि उसके लक्षण की उपमा के लक्षण से अन्यथास्थित नहीं। अन्तर केवल इतना ही तो है कि उसमें उपमान उपमेय और उपमेय उपमान हो
जाता है। . (ग) तुल्ययोगिता-तुस्ययोगिता भी स्पष्ट रूप से उपमा ही होती है'सा भवत्युपमितिः स्फुटम् ।' क्योंकि उसमें दो पदार्थों के बीच साम्यातिरेक विद्यमान रहता है जिनसे से प्रत्येक मुख्यरूप से वर्णनीय पदार्थ होता है। वे भामह के लक्षण के अनुसार भी उनके तुल्ययोगिता के 'शेषो हिमगिरि आदि उदाहरण को उपमा में अन्तर्वत कर कहते हैं-'उक्त ( भामह ) लक्षणे तावदुपमान्तंभावस्तुल्ययोगितायाः। . (प) अनन्वय-अनन्वय के विषय में भी कुस्तक का यही कहना है कि
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